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________________ १३८ सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना सुहृदयमसुदेयं प्रेम मेऽन्योन्ययोगात् ___सहजमुपकरिष्यत्यायतं हन्त यस्मिन् । स्वयमुपनयमानं तत्कदाभाविता ___दुग्दिनमनुदिनमेवं ध्यायति त्वां नरेन्द्रः ।। यहाँ कवि सीता/सुन्दरी के समक्ष हनुमान/श्रीशैल के माध्यम से राम/श्रीकृष्ण की वियुक्तावस्था का चित्रण करते हुए कहता है कि हे सती ! राम या श्रीकृष्ण तुम्हारे अवलोकन का वर्णन करने वाली बातचीत ही करते हैं, दिन-रात तुमसे सम्बन्धित चर्चाएं ही सुनते हैं तथा तुम्हारे सहवास की ही कामना करते हैं। इस प्रकार वह तुम्हारे वियोग में उदास रहते हैं। लोगों से परिपूर्ण होने पर भी उन्हें शून्य-सा लगता है, विभव और परिजनों से घिरे रहने पर भी वे अपने-आप को एकाकी समझते हैं। सम्पत्ति और सुखों से उन्हें अरुचि हो गयी है तथा तम्हारे वियोग से उनका मन रिक्त-सा हो गया है । एकान्त मिलते ही अपने आप से बोलने लगते हैं । बारम्बार घूम-फिरकर दूसरों से तुम्हारे विषय में पूछते हैं । क्षणभर में ही अपनी सम्पत्ति तथा प्राणों से विरक्त हो जाते हैं । हे देवि !राम/श्रीकृष्ण ने ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो न किया हो। 'प्राण देकर भी पालनीय, स्वाभाविक और अपरिमित मेरा प्रेम एक-दूसरे से सहवास के द्वारा जिस दिन मेरे हृदय को तृप्त करेगा, हाय ! वह दिन किस वेला में अपने आपआयेगा?' इस प्रकार राम /श्रीकृष्ण प्रतिदिन तुम्हारा ही ध्यान करते हैं। इस प्रकार के द्विसन्धानात्मक विरह-वर्णनों से द्विसन्धान-महाकाव्य में करुण-विप्रलम्भ का सुन्दर परिपाक हुआ है। करुण रस संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार धन आदि के विनाश, प्रियजन के वियोग या विनाश रूप आलम्बन से तथा उनके गुण आदि के स्मारक उद्दीपनों से उद्बुद्ध अश्रुपात, विलाप, विवर्णता आदि अनुभावों से प्रतीति योग्य एवं निर्वेद, ग्लानि, दैन्य, चिन्ता, आवेग, मोह, भय, विषाद आदि व्यभिचारियों से परिपुष्ट शोकरूप स्थायी भाव ‘करुण रस' कहलाता है । करुण-विप्रलम्भ में पुनर्मिलन की आशा १. द्विस.,१३.३९-४२ २. ना.शा,पृ.८७
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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