SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८]. भगवान पार्श्वनाथ । हुआ था । तीर्थंकरोंके धर्मोपदेशमें मूलतत्वोंकी स्थापना एक समान होती है, यह हम पहले ही देख चुके हैं। इसलिए यह मानना कुछ ठीक नहीं जंचता कि भगवान् पार्श्वनाथजी द्वारा सिद्धांतवादका प्रतिपादन नहीं हुआ था और वे एक सिद्धांतवेत्ता नहीं थे। किन्तु डॉ. बारुआने यह निष्कर्ष उत्तराध्ययनके उस अंशसे निकाला है जिसमें कहा गया है कि 'पहलेके ऋषि सरलथे, परन्तु समझके कोता थे और पीछेके ऋषि अस्पष्टवादी और समझके कोता थे; किन्तु इन दोनोंके मध्यके सरल और बुद्धिमान थे।....पहलेके. मुश्किलसे धर्म-वोंको समझते थे और पीछेके मुश्किलसे उनका आचरण कर सकते थे । परन्तु मध्यके उनको सुगमतासे समझते और पालते थे। इसके साथ ही दिगम्बरोंके 'मूलाचार' जीमें भी करीब२ ऐसा ही कथन मिलता है, जैसे कि पूर्व में देखा जाचुका है। वहां लिखा है कि आदि तीर्थमें शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये जाते हैं, क्योंकि ये अतिशय सरल स्वभावी होते हैं। और अन्तिम तीर्थमें शिष्यजन कठिनतासे निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे अतिशय वक्र: स्वभाव होते हैं। साथ ही इन दोनों समयोंके शिष्य स्पष्टरूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं।' इन कथनोंसे अवश्य ही यह प्रमाणित होता है कि मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके शिष्य, जिनमें भगवान पार्श्वनाथ नीके शिष्य भी सम्मिलित हैं सरल, बुद्धिमान् और धर्मको नियमित ढंगसे पालनेवाले थे । वे उसप्रकार वक्र नहीं थे और न उतनी हील हुज्जत धार्मिक विषयोंमें करते थे जितनी कि पहले श्री ऋषभदेव और अन्तिम श्री वर्धमान स्वामीके शिष्य १-उत्तराध्ययन २३ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy