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________________ भगवान पार्थ व महावीरजी! [३८७ प्रमाणित है । इस अपेक्षा प्राचीन जैनधर्ममें भी सैद्धांतिक विज्ञान होनेका समर्थन होता है । दूसरे शब्दोंमें भगवान पार्श्वनाथके निकट भी जैन दर्शन मौजूद था, यह स्पष्ट होजाता है । तिसपर स्वयं डॉ० बारुआने भगवान् पार्श्वनाथमी द्वारा किये हुये जीवोंके षटू काय भेदको स्वीकार किया है। अब यदि उनके मतानुसार यह मान लिया जाय कि भगवान् पार्श्वनाथजीके पास कोई सैद्धांतिक क्रम पदार्थ निर्णयका नहीं था, क्योंकि वे तत्ववेत्ता ही नहीं थे, तो फिर यह कैसे संभव है कि उनने जीवोंका षटकायभेद निरूपित किया हो ? इससे तो यही प्रगट होता है कि पार्श्वनाथनीने अवश्य ही पदार्थनिर्णयरूप एक सिद्धांतवादका निरूपण किया था। जब कि जैनशास्त्रोंमें भगवान् पार्श्वनाथ और महा. वीरस्वामीके धर्मोपदेशमें पारस्परिक अन्तरको स्पष्ट बतलाया गया है, तब यह कुछ नीको नहीं लगता कि उन्होंने इस भारी भेदको प्रगट करना आवश्यक न समझा हो ! प्रत्युत बौद्ध शास्त्रोंके उल्लेखोंसे अन्यत्र हम देख चुके हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ नीके शिष्यगण स्वतंत्र रीतिसे आत्मवादको सिद्ध करते थे और उनमें वादी भी थे। तिसपर पूर्वप्टष्ठोंमें जो हम भगवान् पार्श्वनाथनीके समय एवं उनके बादके मुख्य मत प्रवर्तकोंके सिद्धांतोंपर भगवान् पार्श्वनाथनीके सैद्धांतिक उपदेशका प्रभाव पड़ा देख चुके हैं, उससे स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा भी वैसा ही जैन दर्शन निरुपित हुआ था जैसाकि भगवान महावीरजीकी दिव्यध्वनिसे प्रगट १-प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी पृ. ३०३ । २-इंडियन . हिस्टॉरीकल क्वाटि- भाग २ पृ. ७०८-७०९ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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