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________________ तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [१५ अवज्ञा करनेके लिए उस वृक्षके कुछ पत्ते तोड़कर मींड कर अपने पैरकी धूलसे लगा लिये और उस ब्राह्मणसे कहा कि देख, तेरा देव जैनियोंका अनिष्ट करनेमें बिल्कुल समर्थ नहीं है । इसके उत्तरमें उस ब्राह्मणने कहा कि अच्छा ऐसा ही सही, इसमें हानि ही क्या है ? मैं भी तेरे देवका तिरस्कार कर सकता हूं । इस विषयमें तू मेरा गुरु ही सही ! इसतरह कहकर वे दोनों एक देशमें जा पहुंचे। वहांपर कपिरोमा नामकी बेलके बहुतसे वृक्ष थे। उन्हें देखकर वह श्रावक कहने लगा कि देखो यह हमारा देव है और यह कहकर उसने बड़ी भक्ति से प्रदक्षिगा दी और नमस्कार कर अलग खड़ा होगया। वह ब्राह्मण पहलेसे क्रोध करही रहा था, इसलिए उसने भी हाथसे उसके पत्ते तोड़े और मसलकर सब जगह लगा दिये, परन्तु वे खुजली करनेवाले पत्ते थे इसलिये लगाते ही उसे असह्य खुजलीकी बाधा होने लगी तथा वह डर गया और श्रावकसे कहने लगा कि इसमें अवश्य ही तेरा देव है । तब हंसता हुआ श्रावक कहने लगा कि इस संसार में जीवोंको सुखदुखका देनेवाला पहिले किये हुये कर्मोके सिवाय और कुछ नहीं है-कम ही इसके मूलकारण हैं । इसलिये तप, दान, आदि सत्कार्यों द्वारा तू अपना कल्याण करनेके लिए प्रयत्न कर और इस प्रकारकी देवमृढ़ताको कि देवता ही सब करते हैं निकाल फेंक । बादको वह फिर कहने लगा कि जो मनुष्य पुण्यवान हैं उनके देवलोग स्वयं आकर सहायक होनाते हैं । पुण्यरूपी कंकणके रहते हुये देव कुछ हानि नहीं कर सक्ते । इस प्रकार समझाकर अनुक्रमसे उसकी देवमूढ़ता दूर की।" १-श्रीगुणाभद्राचार्य प्रणीत ‘उत्तरपुराण" का पं० लालाराम कृत हिन्दी
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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