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________________ उस समयकी सुदशा। [५९ सम्बोधित करते हैं । गोत्र नामसे उल्लेख करनेकी प्रथा प्रायः बहु प्रचलित थी, परन्तु निगन्थों (जैन मुनियों)के निकट उसकी मनाई थी। (जैकोबी, 'जैनसूत्र' भाग २ पृष्ठ ३०५) वे अपने संघको ही गोत्र कहते थे। ( पूर्व ३२१-३२७ ) और जाहिरा किसी अन्य संघका अस्तित्व मानना सांसारिक समझते थे । बुद्ध अपने संघके लोगोंको मूल नामसे ही पुकारते थे । वस्तुतः उस समय गोत्र नाम अन्य मूल नाम आदि सबसे विशेष गौरवशाली समझा जाता था ।" * ____ यदि हम जैनशास्त्रोंमें खोन करके देखें तो अवश्य ही उनमें भी सम्बोधनके उपरोक्त भेदोंका परिचय अवश्य ही प्राप्त होजाता है । उदाहरणके तौरपर देखिये 'रक्तमुख' 'श्याममुख' आदि रूपसे 'उपनाम' का व्यवहार 'पद्मपुराण' में हुआ मिलता है । व्यक्तिगत नाम तो अनेकों मिलते हैं-ऋषभ, भरत आदि यही मूल नाम हैं। गोत्र नामका व्यवहार भी जैन शास्त्रोंमें होता हुआ मिलता है, जैसे भगवान पार्श्वनाथ अपने गोत्रकी अपेक्षा 'काश्यपीय इन्द्रभूति गणधर 'गौतम' और सुधर्माचार्य 'अग्निवैश्यायन' कहलाते थे । वंश नामकी अपेक्षा स्वयं भगवान महावीर ‘ज्ञातृपुत्र' के नामसे परिचित हुये थे । माताके नामसे भी विशेष व्यक्तियोंकी प्रख्याति जैनशास्त्रोंमें की गई है, जैसे ऐरानन्दन (शांतिनाथ), वामेंय (पार्श्व. नाथ) इत्यादि । समानमें प्रतिष्ठित पदकी अपेक्षा किसीका उल्लेख करना प्रायः बहु प्रचलित है । उत्तरपुराणमें अभयकुमारके पूर्वभव वर्णनमें ब्राह्मणपुत्रका उल्लेख इसी तरह हुआ है। शिष्टाचारके * 'डायोलॉग्स ऑफ बुद्ध' में महालि सुत्तकी भूमिका पृ० १९३-१९६ ॥
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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