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________________ उस समयकी सुदशा । [ ४५ लिखा हुआ है कि वह जैन विहार जो लंका में हुये पहले के इक्कीस राजाओंके समय से मौजूद था, राजा वत्तागामिनी ( ई० से पूर्व ३८१०) द्वारा नष्ट कर दिया गया था । यह राजा जैनों से रुष्ट होगया और उसने उनके विहारको उजड़वा दिया । (दीपवंश १९ - १४ ) इस उल्लेखसे लंकासे जैनधर्मका प्राचीन सम्बंध प्रगट होता है । अतएव उपरोक्त कथाओं को हम विश्वसनीय पाते हैं । - इसप्रकार उस समय के भारतवर्षका व्यापार उन्नतशील अवस्था में था । यहांके व्यापारी दूर दूर तक व्यापार करने जाते थे । जैन कथाओं में अनेकों जैन वणिकोंका जहाजद्वारा विदेशों में जाकर व्यापार करनेके उल्लेख मिलते हैं । ' पुरातत्वविदोंने भी इस बातको स्वीकार किया है कि ईसासे पूर्व आठवीं शताब्दिसे भारत और मेडेट्रेनियन समुद्रके देशोंके मध्य व्यापार होता था । यह व्यापार आजकलके व्यापारियों जैसी कोरी दलाली अथवा धोखेबाजी नहीं थी । तबके व्यापारी आजसे कहीं इमानदार और संतोषी थे । .. 3 भारतीय शिल्पको उन्नत करना अपना फर्ज समझते थे । कलतक इस देशका शिल्प भुवनविख्यात था। यही नहीं कि यह व्यापारी विदेशों में जाकर केवल अपनी अर्थसिद्धिका ही ध्यान रखते हों, प्रत्युत हमें यह भी मालूम है कि इनके द्वारा भारतीय सभ्यताका प्रचार दूर२ देशों तक हुआ था । इस तरह यहांका व्यापार भगवान पार्श्वनाथके जन्म समय अपनी उन्नत दशा में था और यह १ - आराधना कथाकोष, पुण्याश्रव आदि ग्रन्थ । २ - देखो पंचानन मित्राकी ' प्री- हिस्टॉरिकल इन्डिया' पृष्ठ ३३ । ३ - भारत - भारती पृ० १०६-१०७ । ४- देखो 'प्री - हिस्टॉरिकल इन्डिया' पृ० २७-३३ ।
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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