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________________ आनन्दकुमार । [ ३३ - वत है; जैसा दर्पण में मुंह देखोगे वैसा दिखाई पड़ेगा । इसी तरह जिसभावसे जिन भगवानकी प्रतिमाका अवलोकन किया जायगा उसी भावरूप पुण्य पापका बंध पूजकके होगा । पुण्य पाप जीवके निजभावोंके आधीन हैं । जिस तरह एक सुन्दर वेश्याके मृत देहको देखकर विषयलम्पटी जीव तो पछताता है कि हाय ! यह जिन्दा न हुई जो मैं इसका उपभोग करता । एक कुत्ता मनमें कुढ़ता है कि इसे जला ही क्यों दिया गया, वैसे ही छोड़ देते तो मैं भक्षण कर लेता और विवेकी पुरुष उसको देखकर विचारते हैं कि हाय ! यह कितनी अभागी थी कि इस मनुष्य तनको पाकर भी इसने इसका सदुपयोग नहीं किया ! वृथा ही विषयभोगों में नष्ट कर दिया; इसी तरह जिनबिम्बको देखकर अपनी२ रुचियोंके अनुसार लोग उसके दर्शन करते हैं । वेश्याका निर्जीव शरीर तीन जीवोंको तीन I विभिन्न प्रकारके भाव उत्पन्न करनेमें कारणभूत बनगया, यह विलक्षण शक्ति उसमें कहां से आगई ? वह तो जड़ था - उसमें प्रभाव डालने की कोई ताकत शेष नहीं रही थी फिर भी उसके दर्शनने तरह के विचार तीन प्राणियोंके हृदय में उत्पन्न कर दिये । यह प्रसंग मिल जाने से जीवोंके परिणामोंके बदल जानेका प्रत्यक्ष प्रमाण है ! इसलिए जिन प्रतिमासे विराग करनेकी कोई जरूरत नहीं । ढ़ श्रद्धा रखकर यदि हम उनका आधार लेकर उन तीर्थंकर भगवानके दिव्य गुणों का चितवन करेंगे जो अपने ही सद्प्रयत्नोंसे जगतपूज्य बन गए हैं तो अवश्य ही हमें जिनप्रतिमा पूजनसे पुण्यकी प्राप्ति होगी ! इसमें संशय नहीं है । आज प्रत्यक्षमें अंग्रेजोंको देखिये; कोई भी उनको मूर्तिपूजक ३
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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