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________________ धरणेन्द्र-पद्मावती कृतज्ञता ज्ञापन । [१२७ 'तारूप होगये और वे समताभावोंसे प्राण विसर्जन करके इसी लोकमें भवनवासी देव हुये ! अन्तिम समयमें धर्माराधन करनेका मधुर फल उनको तुरत ही मिल गया । वे पशु होकर भी उसके पुण्य प्रभावसे देवगतिको प्राप्त हुये ! जैनशास्त्रोंमें देवगति चार प्रकारकी बतलाई गई है । स्वर्गलोकमें विमानोंमें दसनेवाले देव कल्पवासी कहे जाते हैं; सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिषपटलमें रहनेवाले देव ज्योतिषी कहलाते हैं; भूलोकमें निवास करने वाले तथापि अधोलोकके पूर्वभागमें भी किंचित वसनेवाले देव भवनवासी बतलाये गये हैं और व्यंतरदेव वे कहे गये हैं जो भूत, प्रेत आदि नामसे प्रसिद्ध हैं । इन देवोंके शरीर मनुष्योंसे विशिष्ट और सूक्ष्म तथापि विक्रिया (रूप बदलनेकी) शक्ति कर संयुक्त होते हैं । यह लोग मनुष्योंसे अधिक सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। आजकल 'प्रेत-विद्या' (Spiritualism) के बल. कतिपय सिद्धहस्त लोग इनमेंसे इतर जातिके-भवनवासी और व्यंतर देवोंको आह्वाहन करनेमें सफल-प्रयास होचुके हैं और उन्होंने जो अन्य देवों और देवलोकोंका हाल बतलाया है, उससे यह बात स्पष्ट होगई है कि सचमुच कोई देवगति भी संसारमें रुलते हुए जीवको सुख-दुःख भुगतनेके लिये हैं । नाग-नागिनीके जीव भवनवासी देवोंमें नागकुमार नामक देवोंके इन्द्र और इन्द्राणी हुयेथे। इसीलिये वे क्रमशः धरणेन्द्र और पद्मावतीके नामसे विख्यात हुये हैं।' १-जैनशास्त्रोंमें हमें कहीं भी धरणेन्द्र और पद्मावतीके सम्बन्धमें कोई स्पष्ट विवेचन नहीं मिला है कि वह जातिवाचक अथवा व्यक्तिगत नाम हैं, परन्तु पुराण ग्रंथों में हमें भगवान पाश्वनाथसे पहले भी इनका
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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