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________________ भगवानका शुभ अवतार! [११५ 'उपनतमुखसुप्रसन्नदिक्कं नियमितसर्वरजः कणानुबंधम् । जिनवरजनने जगत्समस्तं क्षणमिव मुक्तामभूदमुक्तरागम् ॥ नवपरिमल सौरभावकृष्टभ्रमदलिमेचकितान्मरुत्पथानात् । अविरलबहला सुरद्रुर्माणां नृपतिगृहे निपपात पुष्पवृष्टिः ॥' अर्थात्-तीन लोकके नाथ भगवान जिनेन्द्रके जन्मते समय धूलिके करणोंके नियमित हो जानेपर समस्त दिशाएं निर्मल होगई; उस समय क्षणभरके लिये समस्त जगत शांत होगया और उसके आनंदका पार न रहा । उस समय मनोहर सुगंधिसे खींचे गये नो भनभनाट करते हुये भ्रमर- उनके संबंधसे चित्रविचित्र और उत्कृष्ट सुगंधिको धारण करनेवाले कल्पवृक्षोंसे जायमान पुष्पोंकी वर्षा आकाशसे राजा विश्वसेनके मंदिरमें होने लगी । (पार्श्वचरित पृ० ३४७) । देवोंके सचिव इन्द्रका आसन कंपायमान होगया, कल्पवासी देवोंके विमानोंमें स्वयं घंटे बजने लगे, ज्योतिषी गृहोंमें अपने आप सिंहनाद होने लगा, व्यन्तरोंके आवासोंमें भेरीका शब्द अकस्मात् हो निकला और भवनवासी देवोंके भवनोंमें शंखध्वनि होने लगी। सारांश यह कि सारे भूमंडलपर प्रसन्नताकी एक लहर दौड़ गई। जिस प्रकार विनातारकी तारवर्की ( Wireless Telegraphy ) द्वारा एक विद्युत लहर वातावरणमें व्याप्त होकर निर्दिष्ट स्थानोंके कलपुर्जोको चलायमान कर देती है, उसी प्रकार श्री तीर्थकर भगवानके जन्मसे एक ऐसी आनंदभरी विद्युत लहर सारे संसारमें फैल गई कि स्वयं सर्वत्र हर्ष ही हर्ष छागया ! प्राकृत रूपमें ऐसी घटना घटित होना अनिवार्य थी। देवोंने जब उक्त घटनाओंके बल श्री तीर्थकर भगवानका
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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