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________________ ११४] भगवान पार्श्वनाथ । यह तीर्थंकर भगवानकी पुण्य प्रकृतिका प्रभाव था । पूर्व जन्मोंमें उन्होंने किस प्रकार देवपूजा, गुरुभक्ति, व्रताचरण आदिकी उत्कृष्टतासे पुण्य संचय किया था, यह हम पूर्व प्रकरणोंमें देख चुके हैं। इन्हीं धर्मकार्योंके बल एक मत्त हाथीकी गतिमें पड़ा हुआ जीव आत्मोन्नति करके त्रिलोक वंदनीय परमात्मा होगया । रंकसे राव बन गया ! हमारे लिये इससे बढ़कर और आदर्श क्या हो सक्ता है ? महाराणी ब्रह्मदत्ताके नौमास बड़े ही आनन्दसे बीते । दिक्कुमारियां सदा ही उनकी सेवा सुश्रूषामें उपस्थित रहतीं थीं, वे उनकी रुचिके अनुसार ही विनोद क्रियायें करके उनके हृदयको प्रफुल्लित करती थी। जब वह गूढ अर्थको लिये हुये श्लोकोंका अर्थ महाराणीसे पूछती थीं और वे यथोचित उनका उत्तर देतीं थीं, तब सचमुच यही भासने लगता था कि महाराणीकी प्रखर बुद्धिको गर्भस्थ बालकके दिव्यज्ञानने और भी प्रकाशमान कर दिया है। इधर देवों द्वारा रत्नवृष्टि पहलेकी भांति होरही थी। जिसको देखकर महाराणीका मन सदैव प्रसन्न रहता था । नियमित समयके पूर्ण होनेपर महाराणीने पौष कृष्ण एकादशीके पवित्र दिन भगवान पार्श्वनाथको उसी तरह जना जैसे पूर्वदिशामें सूर्यका जन्म होता है। भगवानके आनंदमई जन्मसे तीनों लोकके सब ही प्राणी हर्षित होगये । एक क्षणके लिये सब ही अपने दुःखोंको भूल गये । नर्कमें पड़े हुए दारुण दुःख सहते नारकियोंको भी उस समय सान्त्वना मिल गई ! तीर्थकर प्रकृतिका प्रभाव ही अजब होता है । आचार्य कहते हैं:
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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