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________________ मुनि श्रुतशंका टाळवाने अर्थे अथवा जिनेश्वरनी समवसरणादि ऋद्धि जोवाने माटे पोताना शरीरमांथी एक हाथ प्रमाण शरीर विकुर्वी शके. कार्य समाप्ति थये आ देहवें विसर्जन करे. एक भवमां बे वखत आ प्रमाणे थाय अने जो त्रीजी वार करे तो अवश्य मोक्षे जाय. २५ शीतलेश्यालब्धि- तेजोलेश्याथी बळता जीव प्रत्ये करुणा उत्पन्न थये छते आ लेश्या मूकवाथी बळता जीवो अगर तो पदार्थो जळना सिंचननी माफक शांति प्राप्त करे छे. २६ वैक्रियलब्धिविविध प्रकारनी क्रियाओ करवानी शक्तिवाळं वैक्रिय शरीर विकुर्वी शकाय. आ लब्धि अनेक प्रकारनी शक्तिवाळी छे. (१) अणुत्व-अत्यन्त सूक्ष्म शरीर बनावी, कमळनी नाळना छिद्रमां पण दाखल थई त्यां चक्रवर्तीना जेवा भोगो भोगवी शकाय.(२) महत्त्वमेरुपर्वत जे एक लाख योजन ऊंचो छे तेना करतां पण मोटुं शरीर बनावी शकाय. (३) लघुत्व-वायु करतां पण लघु एटले हलकुं शरीर बनावी शकाय. (४) गुरुत्व-वज्र करतां पण अत्यंत भारे शरीर बनावी शकाय के जेने इन्द्रादि देवो पण पोताना उत्कृष्ट बळथी उपाडी शके नहीं. (५) प्राप्तिभूमि ऊपर रहीने पोतानी हस्त एटलो बधो लंबावे के मेरुपर्वत ऊपरना शिखरने स्पर्शी शके. (६) प्राकाम्य-जळमां भूमि पर चालवानी माफक चाले तेमज भूमि पर डुबकी मारवानी माफक डुबकी मारता चाली शके. (७) ईशित्व तीर्थंकर, इन्द्र अने चक्रवर्त्यादिकनी ऋद्धि विकुर्वी शके. (८) वशित्व-सर्व जीवोने पोताने आधीन करी शके. (९) अप्रतिघातित्व-खुल्ला मार्गमां जेम अस्खलित गतिए गमन करी शकाय, तेम वच्चे पर्वतादि विघ्नो आववा छतां पण अस्खलित गमन करी शके. (१०) अन्तर्धानत्व-अदृश्य थई जाय के जेथी कोई पण जोई शके नहीं. (११) कामरूपित्व-एक साथे अनेक प्रकारना विविध रुपो बनावी शके. आ प्रमाणे वैक्रियलब्धि अनेक प्रकारनी समजवी. २७ अक्षीणलब्धि कोई पण पदार्थ खूटे नहीं. तेना बे प्रकार छे. (१) अक्षीणमहानसी-पोताना पात्रमा अल्प आहार होय तो पण आ लब्धिना प्रभावथी अनेक जणाने जमाडे तो पण खूटे नहीं परन्तु छेवटे ज्यारे पोते ज आहार करे त्यारे ज खूटे. श्रीगौतमस्वामीए अष्टापदथी नीचे उतरतां १५०३ तापसोने आ ज लब्धिना प्रभावथी पारणुं कराव्यु हतुं. (२) अक्षीणमहालय परिमित भूमिमां पण असंख्य देवो, तिर्यंचो अने मनुष्यो पोतपोताना परिवार सहित एकबीजाने पीडा उपजाव्या सिवाय सुखपूर्वक बेसी शके. जेमके श्रीतीर्थंकरादिकना समवसरणमां असंख्य देवादिक समाई शके छे. २८ पुलाकलब्धि चक्रवर्तीना सैन्यने पण चूर्ण करी नाखे. आ प्रमाणे अट्ठावीश लब्धिओनुं स्वरूप जाणवू बीजी पण मनलब्धि, वचनलब्धि, कायलब्धि विगेरे लब्धिओ अतिशय शुभ परिणामथी अने तपना प्रभावथी प्राप्त थाय छे. ज्ञानावरणीय तथा वीर्यान्तराय कर्मना असाधारण क्षयोपशमथी अन्तर्मुहूर्त मात्रमा सर्व श्रुतसमुद्रनुं अवगाहन करवानी शक्ति ते मनोलब्धि. श्रुतज्ञाननी सर्व वस्तुओने अन्तर्मुहूर्त मात्रमा उच्चारवानी जे शक्ति ते वचनलब्धि. आ लब्धिथी चौदपूर्व- परावर्तन (आवृत्ति) थाय छे अथवा पद, वाक्य अने अलंकार युक्त वचनो मोटा स्वरे बोलवा छतां वाणीनी धारा अस्खलित रहे, वचमां एक पण अक्षरादि तूटे नहीं तेमज प्रारंभमां कंठ जेवो होय तेवो अंतपर्यन्त श्रीगच्छाचार-पयन्ना– १९३
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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