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________________ करे, २. कोई गाममां, नगरमां अगर तो राजधानीमां जतां चातुर्मासमां साधुओने रहेवा वसतिस्थान मल्यु होय अने साध्वीओने न मळ्युं होय तो साथे रही शके अथवा साध्वीओने रहेवा उपाश्रय मल्यो होय अने साधुओने न मल्यो होय तो साथे रहे, बेसे, नैषेधिकी इत्यादि करे, ३. वर्षाद आवतो होय अने बीजी जग्या न मळी शकती होय तो साधु-साध्वी नागकुमार तथा सुवर्णकुमारना मंदिरमां एकत्र रही शके, ४. साध्वीओना वस्त्रो चोराई जवानो भय रहेतो होय तो साधु-साध्वी एकठा रही शके, ५. साध्वीओने युवान तथा रूपवती देखी कोई कामी पुरुष तेनी साथे मैथुन सेवननी अभिलाषा करे तो बन्ने एकत्र रही शके. आ पांच कारणो महामुनिओने सेववा घटे. सांप्रतकाळे तो भेगा रहेवं महामोहर्नु कारण छे तेथी ते प्रणालिकानो सर्वथा निषेध करवामां आव्यो छे. जिनकल्पी मुनि(जे वस्त्ररहित होय छे ते) पांच प्रसंगोमां वस्त्र सहित साध्वीओनी साथे रही शके-तेमां जिनाज्ञानो भंग थतो नथी. ते कारणो आ प्रमाणे-१. कोई साध्वी, चित्तभ्रम थई गयुं होय, २. कामातुर होय, ३. भूतादिकनो प्रवेश थयेल होय, ४. उन्मादी बनी गई होय अने ५. कोई साध्वीने दीक्षा आपी होय अने बीजी साध्वीओ ते स्थळे न होय. आ कारणोमां जो किंचित्मात्र दूषण लगाडे तो महादंडनो भाजन थाय. उपर्युक्त वृत्तांतना अनुसंधानमां ज कहे छे के वायामित्तेण वि जत्थ, भट्ठचरिअस्स निग्गहं विहिणा। बहुलद्धिजुअस्सावी, कीरइ गुरुणा तयं गच्छम् ॥७१ ।। [वाड्मात्रेणापि यत्र, भ्रष्टचरितस्य निग्रहो विधिना । बहुलब्धियुतस्यापि, क्रियते गुरुणा सको गच्छ: ।।७१ ॥] गाथार्थ-वचनमात्रथी पण चारित्रभ्रष्ट थयेल मुनि कदाच घणी जलब्धिवाळो होय तो पण ज्यां विधिपूर्वक तेनो निग्रह कराय छे तेने ज खरेखर सदाचारी गच्छ कहेवाय. विवेचन- शास्त्रकार कहे छे के-शिष्य गमे तेवो शक्तिशाळी या तो लब्धिधारी होय परन्तु जो ते व्रतमां दूषण लगाडे तो तेना प्रत्ये अंशमात्र स्नेह राख्या सिवाय तरत ज तेनो त्याग करवो अथवा उचित दंड (शिक्षा) करवो. आ संबंधमां एक क्षुल्लक साधुनुं दृष्टांत जाणवा जेवू छे. वसंतपुरमां देवप्रिय नामनो श्रेष्ठी हतो. तेनी स्त्री युवावस्थामां ज मृत्यु पामी. एवामां त्यां एक मुनिराज पधार्या. तेनी देशना सांभळतां तेने वैराग्य उपज्यो एटले श्रेष्ठिये पोताना आठ वर्षना पुत्र साथे दीक्षा लीधी. संयम-पालन करतां थोडा दिवसो पसार थया तेवामां बाल (क्षल्लक) साधए पिताने का के-पिताजी ! हुं पगरखां पहेर्या विना चाली शकतो नथी, मारा पगमां पीडा थाय छे. त्यारे पिताए का के-ठीक, तुं पगमां पगरखां पहेर. थोडा दिवस बाद पुत्रे का के-हुं ताप सहन करी शकतो नथी. पिताए कह्य-छत्र धारण कर. पुत्रे पुन: कां-हुं गोचरी लेवा जई शकतो नथी. पिताए गोचरी लावी आपवी शरू करी क्षुल्लेके वळी का-हुं भूमिशयन करी शकतो नथी. पिताए सूवा माटे पाटियुं लावी आप्यु, पुत्रे पार्छ का-हुं लोच करावी शकतो नथी. पिताए तेनुं मुंडन कराव्यु पछी तो ते सचित्त जळथी स्नान करवा लाग्यो. मलिन वस्त्रो धोवराववा लाग्यो. आ प्रमाणे श्रीगच्छाचार--पयन्ना– १८७
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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