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________________ कहेल तत्त्वनी श्रद्धा, २ निसर्गरुचि-जेने स्वभावथी ज तत्त्वनी श्रद्धा प्रगटी एटले के उपदेश विना ज तत्त्वज्ञान थयु, ३ उपदेशरुचि- मुनिराज समीपे धर्मोपदेश सांभळीने तत्त्वनी श्रद्धा थई ते अने ४ श्रुतरुचिसूत्रो वांचवाथी, तत्त्वनी प्रतीति थई ते. हवे धर्मध्यानना चार आलंबन दर्शावतां कहे छे के–“वायणा १, पिच्छणा २, परियट्टणा ३, धम्मकहा ४।" आनं वर्णन अगाउ आवी गयं छे. जेम महेल पर चढवा माटे आलंबननी जरूर पडे तेम मुक्तिरूपी महेलमां जवा माटे आ चारे आलंबनो छे. हवे धर्मध्याननी चार अनुप्रेक्षा एटले विचारणा जणावे छे–“अणिच्चाणुप्पेहा १ असरणाणुप्पेहा २ एकत्ताणुप्पेहा ३ संसाराणुप्पेहा४।" १ अनित्यानुप्रेक्षा- धर्म विना सर्व अनित्य छे, २ अशरणानुप्रेक्षा- संसारमा जैनधर्म सिवाय बीजा कोईनुं शरण साचुंनथी. ३ एकत्वानुप्रेक्षा-आ जीव एकलो ज छे, संसारमा एनुं बीजं कोई नथी. ४ संसारानुप्रेक्षा - आ जीव संसारमा अनादिकाळथी परिभ्रमण करे छे अथवा आ संसार चार गतिरूप छे. हवे जीव जे शुक्लध्यान करे छे तेनुं वर्णन करतां कहे छे के-ते शुक्लध्यान पण चार प्रकारे छे. “पहत्तवियक्के सवियारी १, एगत्तवियक्के अवियारी २, सुहुमकिरिए अप्पडिवाई ३, समुच्छिन्नकिरिए अनियट्टी ४ ।" १ पृथक्त्ववितर्कसप्रविचार शुक्लध्यान-चौद पूर्वना श्रुत संबंधी अर्थ, व्यंजन अने योगना परस्पर संक्रमण परत्वे विचार करवापूर्वक द्रव्य, पर्याय अने गुणोना संचार संबंधी विचार अर्थात् परनो आश्रय लीधा सिवाय निर्मळ अने शुद्ध आत्मस्वरूपनुं सतत चिंतन अथवा जीव अने अजीवना स्वभाव तेमज विभावने पृथक् पृथक् करवापूर्वक द्रव्य अने पर्यायनो भिन्न भिन्न विचार करतां पर्यायनो गुणमां अने गुणनो पर्यायमा संक्रमण करवारूप सतत विचार. ढूंकमां कहीए तो द्रव्यानुयोगमां ज जेमना मन प्रमुख रक्त रहे ते. २ एकत्ववितर्कप्रविचार-अर्थथी व्यंजनमां अने व्यंजनमाथी अर्थमां अथवा मन, वचन अने कायाना योगमांथी एक-बीजामां नहीं जवारूप ध्यान. अर्थात् पवन न लागता दीपकनी पेठे स्थिर थवारूप ध्यान. ३ सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती-मन अने वचननो संपूर्ण रोध करी फक्त कायव्यापारनुं जे ध्यान ते. वेगथी चालता चक्रने कोई अटकावे तो जेम किंचित् चलनस्वभाव रहे छे तेम किंचित् काययोग रहे छे. अप्रतिपाती शब्द लगाडवानो हेतु ए छे के-पाछा पडवानो स्वभाव नथी. आ ध्यान मोक्षे जवाना अवसरे ज प्राप्त थाय छे. ४ समुच्छिन्नक्रियाअनिवृत्ति-कायानी जे सूक्ष्म श्वासोश्वासरूप क्रिया हती ते रुंधीने, जेम पर्वत निष्पकंप रहे छे तेम त्रणे योग रुंधीने शैलेशी अवस्थाने प्राप्त थईने अ, इ, उ, ऋ अने लु ए पांच ह्रस्व स्वरो बोलतां जेटलो समय लागे तेटला काळ पर्यंतनुं ध्यान. शुक्लध्यानना चार लक्षणों छे–विवेगे १, विउस्सग्गे २, अव्वहे ३, असम्मोहे ४ ।" १ विवेक-आत्माने शरीरथी भिन्न जाणवो अने सर्व संयोगथी विमुक्त मानवो. २ व्युत्सर्ग-आत्माने कोईनो संग नथी एम विचारीने देहरूपी उपाधिनो त्याग. ३ अव्यथा- देवादिकनो उपसर्ग थाय तो पण चळायमान न थाय अने ४ असंमोह-देवादिकना माया-प्रपंचथी सूक्ष्म पदार्थना विषयमा शंका लावीने मूढ न थई जाय. हवे शुक्लध्यानना चार आलंबन जणावतां कहे छे के–“खंती १, मुत्ती २, अज्जवे ३, मद्दवे ४ ।" १ क्षमा, २ निर्लोभता, श्रीगच्छाचार–पयन्ना-११२
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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