SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा अध्ययन : लोक विजय *४९ * पद्यमय भावानुवाद जो भी साधक मोक्ष हित, लेता संयम धार। इच्छा नहिं भव-भोग की, धन्य-धन्य अनगार।।१।। जन्म-मरण के तत्त्व को, अहो! अहो! तू जान। संयम में दृढ़ता करे, जिन आज्ञा फरमान।।२।। नियत समय नहिं काल का, ना जाने कब आय। मुनि ‘सुशील' सम्यक्त्व सँग, संयम शंख बजाय।।३।। जीवन अपना लगत है, सबको प्रिय संसार। सभी चाहते सौख्य ही, दुख से है इनकार।।४।। वध-छेदन से सब डरें, सबको हैं प्रिय प्राण। जीना चाहत कीट भी, मत मारे नादान ।।५।। विषयी अथवा मूढ़ नर, बाल जीव इन्सान। द्विपद-चतुष्पद जीव को, सता रहा अनजान ।।६।। काम लगाकर रात-दिन, संचय करता वित्त । तन से मन से वचन से, दौलत में आसक्त ।।७।। प्रबल परिश्रम धार कर, न्यूनाधिक धन जोड़। मोह रहा अति भोग हित, रखता और मरोड़।।८।। सौख्य भोग कर बाद में, बचा हुआ धनमाल। रक्षक बनता रात-दिन, उसे नहीं कुछ ख्याल।।९।। आता ऐसा समय जब, धन के भागीदार । बँटवारा सब जब करें, तब करते तकरार।।१०।। अथवा सारे द्रव्य को, चोर चुरा ले जाय। हाथ मसलता वह रहे, बनता नहीं उपाय।।११।। अथवा उसके माल को, शासक लेता छीन। हाथ मले अति शोक में, बन जायेगा दीन।।१२।।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy