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________________ * ४८ * श्री आचारांगसूत्रम् पुनि-पुनि तू भव-चक्र में, घूम रहा नादान । सूरि 'सुशील' कैसे अरे ! कर सकता उत्थान । । २ । संग्रह की ममता अधिक, खेती और मकान । नित्य असंयम प्रिय लगे, मूढ़ जीव पहचान ।।३।। मणि - मुक्ता कलधौत तिय, नाना रँग परिधान । संचय कर आसक्त हो, चेत जीव नादान ।।४।। इन्द्रिय सुख में लीन अति, जीव मूढ़ अरु बाल । कामभोग फल भोग नित, केवल ममता ख्याल । । ५ । । जप-तप-संयम-नियम फल, कब देखा संसार । मूढ़ जीव कहता अरे, बनकर खूब लबार । || बाल जीव हर वस्तु को देख रहा विपरीत । किन्तु अन्त में होयगी, उसकी बहुत फजीत । ।७ । । , • संयम - असंयम - बोध • मूलसूत्रम् - इणमेव णावकंखंति, जे जण धुवचारिणो । जाइमरंण परिण्णाय, चरे संकमणे दढे । सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीवीउ कामा, सव्वेसिं जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजिया णं संसिंचिया णं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाएं, तओ से एगया विविहं परिसिट्ठ संभूयं महोवगरणं भवइ, तं पि से एगया दायाया वा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरइ, रायाणो वा से विलुंपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ, इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण सम्मूढे विप्परियासमुवेइ, मुणिणा हु एयं पवेइयं, अणोहंतरा ए ए, णोय ओहं तरित्तए, अतीरंगमा ए ए, णोय तीरं गमित्तए, अपारंगमा ए ए, णोय पारं गमित्तए, आयाणिज्जं च आयाय तम्मि ठाणे ण चिट्ठइ, वितहं पप्प अखेयणे तम्मि ठाणाम्मि चिट्ठ |
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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