SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा अध्ययन : लोक विजय *४५* पद्यमय भावानुवाद लोभ त्याग करके अरे, संयम जब स्वीकार । कर्मपंक से रहित ही, बने पुरुष अणगार ।।१।। पराधीन हो लोभ में, पाता दुख दिन-रात। रात-दिवस संयोग रत, धनहित प्राणी घात।।२।। केवल लालच अर्थ का, मनन यही दिन रैन। विषयी चोरी भी करे, खोकर निज सुख-चैन।।३।। बार-बार वह सतत ही, करता कायिक घात। बलिष्ठ बनने के लिए, ज्ञाति-द्रव्य अरु भ्रात।।४।। सखा बलिष्ठ प्राप्त हित, अपने जन बलवान। परभव में बलवान मैं, सुरबल भी बलवान।।५।। भूपति बल भी प्राप्त हो, बल धारक भी चोर। मेरा बल महमान भी, कृपण शक्ति महि ओर।।६।। श्रमण बल भी प्राप्त हो, करनी विविध प्रकार। लालचवश दण्डित करे, हा! विषयी संसार।।७।। मेरी इच्छा पूर्ण हो, करे जीव का हन्त । यही सोच करता अरे, फिर भी भय कब अन्त ।।८।। पापमुक्त हो जाऊँगा, भावी फल की आश। इह कारण हिंसा करे, सुख का कर विश्वास।।९।। • आर्य धर्म मूलसूत्रम्तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंड समारंभेज्जा णेवण्णं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभावेज्जा, णेवण्ण एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंतं वि अण्ण ण समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले णोवलिंपिज्जासि।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy