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________________ भूमिका * १३ * जिनवाणी जगदम्ब ने, तारा अंजन चोर । हरिकेशी चाण्डाल थे, बने श्रमण सिरमौर । । १४३ । । अज्ञान रूप विषधर अरे, काट रहा चिरकाल । मंत्र गारुड़ी है यही, हरे गरल तत्काल । । १४४ । । तीन काल में सिद्ध है, जैनागम सिद्धान्त । सूरि 'सुशील' मनन करे, जाकर मुनि एकान्त । । १४५ ।। अतिशय आगम पठन से, श्रद्धा वृद्धि विराग । तीर्थंकर पद भी मिले, करले मन अनुराग । । १४६ । । जैनागम प्रत्यक्ष निधि, दे संतोष हमेश । विकथा चार कषाय से, बचते रहें विशेष । । १४७ ।। आगम घन जलधार से, मोह पंक परिहार । निर्मल रूप स्वरूप हो, प्रकटित हो क्षण वार । । १४८ ।। त्रिपदी - रहस्य तीन ज्ञानधारक प्रभो, दीक्षा चतुर्थ जान | होते जिनवर केवली, करें देशना दान । । १४९ । । तीर्थंकर त्रिभुवन तिलक, जन जन तारणहार । अर्थ रूप जिनदेशना, गणधर मुख विस्तार । । १५० । । अहो ! अहो ! जिन केवली, त्रिपदीमय उपदेश । जिससे रचना सूत्र हो, हारक भवि जन क्लेश । । १५१ । । द्रव्य सर्व उत्पाद व्यय, तथा ध्रौव्यस्वरूप । त्रिपदी तीर्थंकर कथन, आगम जननी रूप । । १५२ ।। श्री जिनागम सहाय से, अनन्त जन भव पार । जिन पड़िमा अणु जिनालय, विषम काल आधार । । १५३ ।। श्रुतज्ञान सरिस विश्व में, अन्य नहीं आधार । मुनि 'सुशील' सज्झाय ही, रात - दिवस स्वीकार । । १५४ । ।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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