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________________ *१२४* ..... - श्रीमा .-.-.-.-.-.-.-.-... श्री आचारांगसूत्रम् ..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. छठा उद्देशक • स्वयं कर्म निर्माता मूलसूत्रम्जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवइ एगे अहमंसि, ण मे अस्थि कोइ, ण याहमवि कस्सवि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागए भवइ जाव समभिजाणिया। पद्यमय भावानुवाद जिन-जिन श्री मुनिराज का, ऐसा अध्यवसाय। मैं अकेला अन्त में, मेरापन कुछ नाय।।१।। मैं किसी का हूँ नहीं, नहिं मेरा संसार। सूरि 'सुशील सुभावना, कर अनुभव साकार।।२।। अपने-अपने कर्म से, भोग रहे सब कष्ट। कहाँ दोष है अन्य का, ज्ञानी भाव स्पष्ट।।३।। लघु बनाये स्वयं को, हो न मोह का भार। सुखद रूप तप प्राप्त हो, पाये समता सार ।।४।। .स्वाद विजय. मूलसूत्रम्से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं णो संचारेज्जा आसाएमाणे, से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे। पद्यमय भावानुवाद श्रमणी अथवा हो श्रमण, करते विमल विचार। लेते भाव विवेक से, भोजन चार प्रकार ।।१।।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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