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________________ "साध्वाचार की उत्कृष्टता" नन्नत्थ एरिसं वृत्तं, जं लोए परमदुचरं। विउलट्ठाण भाइस्स, न भूअं न भविस्सइ॥५॥ हे राजादि महानुभाव! ऐसा उपरोक्त शुद्ध आचार विश्व में अति दुष्कर है। दूसरे दर्शनों में तो ऐसी आचार प्रणाली है ही नहीं। संयम स्थान के पालन करने वाले महापुरुषों को जिनमत के आलावा ऐसा आचार दृष्टिगोचर न हुआ न होगा॥५॥ सुत्रकार श्री ने साध्वाचार की उत्कृष्टता दर्शाते हुए स्पष्ट कहा है कि जिनमत में ही शुद्ध आचार है और ऐसे आचार पालक आत्मा ही आत्महित कर सकते हैं। आराधक कौन-कौन ? स खुड्डगविअत्ताणं, वाहिआणं च जे गुणा। अखंड फुडिआ कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा॥६॥ इस आचार धर्म का पालन, बाल श्रमण, वृद्ध श्रमण, ग्लान व्याधियुक्त श्रमण एवं व्याधिरहित बाल-युवा-वृद्ध सभी को आगे कहे जायेंगे वैसे आचार रुप गुणों का पालन, देश विराधना एवं सर्व विराधना रहित करना अर्थात् निरतिचार चारित्र पालन करना। जैसा आचार का स्वरुप है वैसा मैं कहता हूँ। तुम सुनो।६। आचार स्वरुप . दस अट्ठ य ठाणाई, जाई बालोऽ वरज्झइ। तत्थ अन्नयरे ठाणे, निग्गंधत्ताउ भस्सइ॥७॥ सुत्रकार श्री कहते हैं कि संयम के अठारह स्थान है जो अज्ञान आत्मा इन स्थानों की विराधना करता है, इनमें से एक भी स्थान की विराधना करता है उससे वह निग्रंथ पद से भ्रष्ट होता है॥७॥ नाम पूर्वक अठारह स्थान वय छकं काय छक्कं अकप्यो गिहिभायणं। पलियंक निसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं॥८॥ छ: व्रत, छ काय रक्षण, गृहस्थ के भाजन बर्तन प्रयोग में लेने का त्याग पलंग-कुर्सी-आरामकुर्सी आदि का त्याग , साध्वाचार के विपरित आसन-गृह आदि का त्याग, अकल्पनीय पदार्थ का त्याग देशतः सर्वतः स्नान का त्याग, शारीरिक विभूषा का त्याग इस प्रकार ये अठारह प्रकार के सयंम स्थान हैं। प्रथम स्थान अहिंसा पालन।" तस्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि। अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥९॥ जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा। ते जाणम जाणं वा न हणे णोवि घायए॥१०॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् /६९
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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