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________________ छट्ठ धम्मत्थकामज्झयणं ( महाचार कथा ) "संबंध" पांचवें अध्ययन में एषणा समिति का विस्तृत विवेचन देकर गोचरी गये हुए साधु को किसी के द्वारा पूछा जाय कि महाराज आपका आचार कैसा है ? तब साधु कहे कि हमारे गुरु महाराज उपाश्रय में बिराजमान हैं उनके पास जाकर हमारे आचार का ज्ञान प्राप्त करो। प्रश्नकर्ता गुरू महाराज से साध्वाचार विषयक प्रश्न का समाधान करते हैं। इस संबंध से अब महाचार कथा नामक अध्ययन का प्रारंभ करते हैं। प्रश्नकर्ता एवं समाधान कर्ता कौन ? नाण दंसण संपन्नं संजमे अ तवे रयं । गणिमागमसंपन्नं, उज्जाणम्मि समोसढं ॥ १ ॥ रायाणो रायमच्चा य माहणा अदुव खत्तिआ । पुच्छंति निहुअप्पाणो, कहं भे आयारगोयरो | २ ॥ सम्यग्ज्ञान, दर्शन युक्त, संयम और तप में रक्त, आगम संपन्न, उद्यानादि में पधारे हुए आचार्यादि भगवंतों से राजा, प्रधान, ब्राह्मण या क्षत्रियादि हाथ जोड़कर निश्छल मन से प्रश्न करते हैं। कि है भगवंत ! आपके आचार विचार किस प्रकार के हैं ? हमें समझाओ १/२ ॥ "समाधान कैसे गुरु कर सकते है ? तेसिं सो निहुओ दंतो, सव्वभूअ सुहावहो । सिक्खाए सुसमाउत्तो आयक्खड़ विअक्खणो ॥ ३ ॥ असंभ्रान्त इन्द्रियों सहित मन को दमन करने वाला सभी प्राणिओं के हितेच्छु हितकर्ता एवं, ग्रहण, आसेवन रूप शिक्षा से युक्त ऐसे विचक्षण आचार्य भगवंत राजादि के प्रश्नों के उत्तर देते हैं । आचार्य भगवंत का कथन हंदि धम्मत्थ कामाणं, निग्गथाणं सुणेह मे । आयार गोअरं भीमं, सयलं दुरहिट्ठिअं ॥ ४ ॥ हे राजादि महानुभाव ! धर्म के फलस्वरुप मोक्षेच्छु मुमुक्षु निर्ग्रथों के आचार क्रियाकांड को मैं · कहता हूँ वह तुम सुनो ! निर्ग्रथो का यह सभी आचार कर्म शत्रु के लिए महाभयंकर है उसी प्रकार अल्प सत्व वाले प्राणियों के लिए परिपूर्ण रुप से कठिनता से पालन किया जा सके वैसा है। शक्तिहीन व्यक्ति - के लिए दुष्कर है । ४ । श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ६८
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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