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________________ अथवा भिक्खुणी वा साध्वी दिआ वा दिवस में अथवा राओ वा रात्रि में अथवा एगओ वा अकेले अथवा परिसागओ वा सभा में अथवा सुत्ते वा सोते हुए अथवा जागरमाणे जागते हुए वा दूसरी और भी कोई अवस्था में से त्रसकायिक जीवों की रक्षा इस प्रकार करे कि कीडं वा' कीट पयंगं वा पतंग कुंथं वा कुन्थु पिपीलियं वा कीड़ी आदि द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों को हत्थंसि वा हाथों पर अथवा पायंसि वा पैरों पर अथवा बाईसि वा भुजाओं पर अथवा ऊरूंसि वा जंघाओं पर अथवा उदरंसि वा पेट पर अथवा सीसंसि वा मस्तक पर अथवा वत्थंसि वा वस्त्रों में अथवा पडिग्गहंसि वा पात्रों में अथवा कंबलंसि वा कंबलियों में अथवा पायपुच्छणंसि वा पैरों के पूंछने के कंबल खंड में या दंडासन में अथवा रयहरणंसि वा ओघाओं में अथवा गोच्छगंसि वा गुच्छाओं में अथवा उंडगंसि वा मातरिया,या स्थंडिल में अथवा दंडगंसि वा दंडाओं पर अथवा पीढगंसि वा बाजोंटों में अथवा फलगंसि वा पाटों में अथवा सेजगंसि वा शय्या, वसति आदि में अथवा संथारगंसि वा संथारा में अन्नयरंसि वा दूसरे और भी तहप्पगारे साधु साध्वी योग्य उवगरणजाए उपकरण समुदाय में रहे हुए तओ हाथ आदि स्थानों से संजयामेव जयणा पूर्वक ही पडिलेहिय पडिलेहिय वारं वार देख, और पमज्जिय पमज्जिय पूंज-पूंज करके एगंतं एकान्त स्थान पर अवणेजा छोड़ देवे, परन्तु नो णं संघायमावजेजा त्रसकायिक जीवों को पीड़ा देवे नहीं। हे आयुष्मन् ! जम्बू! भगवान् श्रीमहावीरस्वामी ने बारह प्रकार की सभा में बैठ कर फरमाया है कि पांच महाव्रतों के पालक, सप्तदशविध-संयम के धारक, विविध तपस्याओं के करने और प्रत्याख्यान मे पापकर्मों को हटाने वाले साधु अथवा साध्वी दिन में या रात्रि में, अकेले या सभा में, सोते या जागते हुए, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन जीवों की जयणा खुद करे, दुसरों को जयणा रखने का उपदेश देवे और जयणा रखने वाले को अच्छा समझें। . षट्कायिक जीवों की हिंसा खुद न करें, दूसरों के पास हिंसा न करावे और हिंसा करनवालों को अच्छा न समझें। भूतकाल में जो षट्कायिक जीवों की हिंसा की गई है उसकी आलोयणा करे, निन्दा करे और पापकारक आत्मा का त्याग करे। इस प्रकार ज्ञपरिज्ञा से प्रतिज्ञा करके संयमधर्म का अच्छी तरह पालन करे। जम्बूस्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! षड्कायिक जीवों की जयणा (रक्षा) करने का स्वरूप जो आपने ऊपर दिखलाया है उस मुताबिक मैं खुद पालन करूंगा, दूसरों से पालन कराऊंगा और पालन करनेवालों को अच्छा समझूगा। षट्कायिकजीवों की हिंसा खुद नहीं करूंगा, दसरों के पास नहीं कराऊंगा और हिंसा करनवालों को अच्छा नहीं समझंगा। १. 'वा' शब्द से सामान्य विशेष साधु साध्वी का ग्रहण करना। २. 'वा' शब्द से कीट, पतंग कुन्थु कीड़ी आदि में सभी जातियों को ग्रहण करना चाहिये। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ३४ .
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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