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________________ शब्दार्थ-से पूर्वोक्त पंच महाव्रतों के धारक संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे संयम युक्त, विविध तपस्याओं में लगे हुए और प्रत्याख्यान से पापकर्म को नष्ट करनेवाले भिक्ख वा साधु अथवा भिक्खुणी वा साध्वी दिआ वा दिवस में अथवा राओ वा रात्रि में अथवा एगओ वा अकेले अथवा परिसागओ वा सभा में अथवा सुत्ते वा सोते हुए अथवा जागरमाणे जागते हुए वा दूसरी और भी कोई अवस्था में से वनस्पति कायिक जीवों की जयणा इस प्रकार करे कि बीएस वा शाली आदि बीजों के ऊपर बीयपइटेसु वा बीजों पर रहे आसन ऊपर रूढेसु वा अंकुरों के ऊपर रूढपइडेसु वा अंकुरों पर रहे आसन आदि वस्तुओं के ऊपर जाएसु वा धान्य के खेतों में जायपड्ढेस वा धान्य के खेतों में रहे आसन आदि वस्तुओं के ऊपर हरिएसु वा हरे घास के ऊपर हरियपइडेसु वा हरे घास पर रहे आसन आदि वस्तुओं के ऊपर छिन्नेसु वा कटी हुई वृक्ष की डाली के ऊपर छिन्नपइडेसु वा कटी हुई वृक्ष-डाली पर रहे आसन आदि के ऊपर सच्चित्तेसु वा अंडा आदि के ऊपर सच्चित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा घुण आदि जन्तुयुक्त आसन आदि वस्तुओं के ऊपर न गच्छेजा गमन करे नहीं न चिट्टेजा खड़ा रहे नहीं न निसीएजा बैठे नहीं न तुअट्टाविजा सोएं नहीं अन्नं दूसरों को न गच्छावेजा गमन कराएं नहीं न चिट्ठावेजा खड़ा कराएं नहीं न निसीयावेजा बैठाएं नहीं न तुअट्टाविजा सुलाएं नहीं अन्नं दूसरों को गच्छंतं वा गमन करते हुए अथवा चिटुंतं वा खड़ा रहते हुए अथवा निसीयंतं वा बैठते हुए अथवा तुअटुंतं वा सोते हुए और तरह से भी वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए न समणुजाणेजा अच्छा नहीं समझे ऐसा भगवान ने कहा; अतएव मैं जावजीवाए जीवन पर्यन्त तिविहं कृत, कारित, अनुमोदित रूप वनस्पतिकायिक त्रिविध हिंसा को मणेणं मन वायाए वचन कारणं काया रूप तिविहेणं तीन योग से न करेमि नहीं करूं न कारवेमि नहीं कराऊं करतं करते हुए अन्नं पि दूसरों को भी न समणुजाणामि अच्छा नहीं समझू भंते हे प्रभो! तस्स भूतकाल में की गई हिंसा की पडिक्कमामि प्रतिक्रमण रूप आलोयणा करूं निंदामि आत्म-साक्षी से निंदा करूं गरिहामि गुरू-साक्षी से गर्दा करूं अप्पाणं वनस्पतिकाय की हिंसा करनेवाली आत्मा का वोसिरामि त्याग करूं। "त्रसकाय की रक्षा" से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलियं वा हत्थंसि वा पायंसि वा बाहुंसि वा ऊरंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा कंबलंसि वा पायपुच्छणंसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजगंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेवपडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय एगंतयवणेजा नोण संघायमावजेजा। शब्दार्थ-से पूर्वोक्त पांच महाव्रतों के धारक संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे संयम युक्त ,विविध तपस्याओं में लगे हुए और प्रत्याख्यान से पापकर्म को नष्ट करने वाले भिक्खू वा साधु श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ३३
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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