SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धवयणे । स भिक्खू ॥ ६ ॥ चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज्ज अहणे निज्जाय-रूवरयएं, गिहिजोगं परिवज्जए जे सम्मद्दिट्ठि सया अमूढे, अत्थि हु नाणे तवे संजमे य । तवसा धुणई पुराण - पावगं, मण-वय-काय - सुसंकुडे जे स भिक्खू ॥ ७॥ ज्ञातपुत्र श्री वर्धमान स्वामी के वचनों पर रूचि धारण कर अर्थात् श्रद्धापूर्वक जो मुनि छ जीव निकाय को स्वात्म तुल्य मानता है, पांच महाव्रतों का पालन करता है, और पंचाश्रव को रोकता है। वह भिक्षु है ॥ ५ ॥ जो मुनि आगम वचनों से चार कषायों का नित्य त्याग करता है, मन वचन काया के योगों को स्थिर रखता है, पशु एवं स्वर्ण, रुपयादि का त्याग करता है और गृहस्थों से परिचय संबंध नहीं रखता । वह भिक्षु है ॥ ६ ॥ जो समकित दृष्टि और अमूढ (चित्त में चचलता रहित) है। वह मुनि ऐसा मानता है कि "हेयोपादेय दर्शक ज्ञान है, कर्म मल को धोने हेतु जल समान तप है, आते कर्मों को रोकने वाला संयम है” ऐसे दृढभाव से तप द्वारा पूर्व के पाप कर्मों का नाश करता है। मन वचन काया को संवर करने वाला अर्थात् तीन गुप्तियों से गुप्त एवं पांच समितियों से युक्त है। वह भिक्षु है ॥ ७ ॥ "आहार शुद्धि " विविहं खाइम- साइमं तहेव असणं पाणगं वा, हो ही अट्ठो सुए परे वा, तं न निहे निहावए जे स तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइम - साइमं छन्दिय साहम्मिआण भुंजे, भोच्चा सज्झाय- रए य जे स और विविध प्रकार के, चारों प्रकार के निर्दोष आहार को प्राप्त कर, यह मुझे कल-परसों काम • आएगा ऐसा सोचकर मुनि किसी प्रकार का आहार रातवासी (सन्निधि) न रखें, न रखावे। वह भिक्षु है। लभित्ता । भिक्खू ॥ ८ ॥ लभित्ता । भिक्खू ॥ ९ ॥ उसी प्रकार विविध चारों प्रकार के आहार को प्राप्त कर स्वधर्मी मुनि भगवंतों को निमंत्रित कर आहार करता है और करने के बाद स्वाध्याय ध्यान में रहता है । वह भिक्षु है ॥ ९ ॥ "योग शुद्धि " न य वुग्गहियं कहं कहेजा, न य कुप्ये निहु इन्दिए पसन्ते । संजमे धुवं जोगेण जुत्ते, उवसन्ते अविहेडए जेस भिक्खू ॥ १० ॥ जो मुनि कलहकारिणी कथा नहीं कहता, सद्वाद कथा में दूसरों पर कोप नहीं करता, इंद्रियां शांत रखता है, रागादि से रहित, विशेष प्रकार से शांत रहता है, सयंम में निरंतर तीनों योगों को प्रवृत्त रखता है, स्थिर रखता है, उपशांत रहता है। एवं उचित कार्य का अनादर नहीं करता (किसी का :- तिरस्कार नहीं करता). वह भिक्षु है। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १२१
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy