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________________ जो मुनि रत्नाधिक मुनियों का वय, पर्याय में अल्पवयस्क, एवं ज्ञान-व्रत-पर्याय में ज्येष्ठ है, उनका विनय करता हैं, अपने अधिक गुणवानों के प्रति नम्रतापूर्वक वर्तन करता है, जो सत्यवादी है, सद्गुरू भगवंतो को वंदन करनेवाला है, आचार्य भगवंत के पास में रहनेवाला एवं उनकी आज्ञानुसार वर्तन करनेवाला है वह मुनि पूज्य है॥३॥ अनायउँछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्च।। अलध्धुयं नो परिदेवएज्जा, लधुं न विकत्थइ स पूज्जो॥४॥ जो मुनि अपरिचित घरों से विशुद्ध आहार ग्रहण कर, निरंतर संयम भार को वहन करने हेतु देह निर्वाहार्थ गोचरी करता हैं, भिक्षा न मिलने पर खिन्न न होकर उस नगर या दाता की निंदा प्रशंसा नहीं करता वह मुनि पूज्य है॥४॥ संथार-सेज्जासण-भत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभे वि सन्ते। जो एवमप्पाणभितोसएज्जा, संतोस-पाहन-रए स पुज्जो ॥५॥ जो साधु संस्तारक पाट आदि शय्या, आसन, आहार पानी आदि देह निर्वाहार्थ संयम पालनार्थ उपकरण विशेष रूप में मिल रहे हो तो भी संतोष को प्रधानता देकर जैसे-तैसे संथारादि से स्वयं का निर्वाह करता है वह पूज्य है॥५॥ सक्का सहेडं आसाइ कंट्या, अओमया उच्छहया नरेणं। अणासए जो उ सहेज्ज कंटए वइमए कण्णसरे स पूज्जो॥६॥ धनार्थी आत्मा धनार्थ धन की आशा से लोहमय कंटकों को उत्साहपूर्वक सहन करता है पर जो आत्मसुखार्थी मुनि किसी भी प्रकार की आशा के बिना कर्णपटल में पैठते हुए वचन रूप कंटकों को उत्साह पूर्वक सहन करता है वह पूज्य है॥६॥ मुहत्त दुक्खा उ हवन्ति कंटया, अओ मया ते वितओ सु-उद्धरा। वाया दुरूत्ताणि दुरूद्धराणि, वेराणुबन्धीणि महब्भयाणि॥७॥ लोहमय काँटे मुहूर्त मात्र दुःखदायक है एवं वे सुखपूर्वक निकाले जा सकते हैं, पर दुर्वचन रूप काँटे सहजता से नहीं निकाले जा सकते। वे वैरानुबंधी है। वैर की परंपरा बढ़ानेवाले है। और कुगति में भेजने रूप महाभयानक है॥७॥ समावयन्ता वयणाभिघाया, कण्णंगया दुम्मणियं जणन्ति। धम्मो ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइन्दिए जो सहई स पूज्जो॥८॥ सामनेवाले व्यक्ति के द्वारा कहे जानेवाले कठोर परूष वचन रूप प्रहार कानों में लगने से मन में दुष्ट विचार उत्पन्न होते है। जो महाशूरवीर और जितेन्द्रिय मुनि वचन रूप प्रहार को, सहन करना मेरा धर्म है ऐसा मानकर, सहन करता है वह पूज्य है॥८॥ अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं। ओहारिणिं अप्पियकारिणिं च, भासं न भासेज्ज सया स. पूज्जो॥९॥ जो दूसरों के पीठ पीछे अवर्णवाद निंदा न करनेवाला, सामने दुःखद वचन नहीं कहता, निश्चयात्मक भाषा एवं अप्रिति कारिणी भाषा का प्रयोग नहीं करता वह पूज्य है॥९॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ११४
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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