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________________ "मोक्ष के लिए अनधिकारी" जे आवि चण्डे मई-इट्ठि-गारवे, पिसुणे नरे साहस-हीण पेसणे। अदिह-धम्मे विणए अकोविए, असंविभागी न हु तस्स मुक्खो॥२२॥ ___ जो भव्यात्मा चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् चण्डप्रकृति युक्त है, बुद्धि एवं ऋद्धि गारव से युक्त है (ऋद्धिगारव में मति है जिसकी) पीठ पीछे निंदक/पिशुन है, अविमृश्यकारी/अकृत्य करने में तत्पर/साहसिक है, गुरूआज्ञा का यथा समय पालन न करनेवाला है, श्रुतादि धर्म से अज्ञात है.(धर्म की प्राप्ति जिसे नहीं हुई) विनय पालन में अनिपुण,(अनजान) है असंविभागी अर्थात् प्राप्त पदार्थ दूसरों को न देकर स्वयं अकेले ही उपभोग कर्ता है,इत्यादि दोषरूप कारणों से क्लिष्ट अध्यवसाय युक्त अधम आत्मा को मोक्ष प्राप्त नहीं होता। २२। "मोक्षाधिकारी" निदेसवत्ती पुण जे गुरूणं, सुयत्थ-धम्मा विणयम्मि कोविया। तरित्तु ते ओहमिणं दुरूत्तरं, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गय। तिबेमि॥२३॥ ___ और जो-जो मुनि/शिष्य निरंतर गुर्वाज्ञा में प्रवृत्त हैं, गीतार्थ हैं, विनय धर्म के पालन में निपुण हैं, वे शिष्य/मुनि इस दुस्तर संसार समुद्र को पार करते हैं, सभी कर्मों का क्षय कर उत्तम सिद्धि गति को प्राप्त करते हैं। २३। श्रीशयंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि तीर्थंकरादि के कहे अनुसार मैं कहता हुँ। तृतीय उद्देश्य "शिष्य पूजनीय कब बनता है? आयरियं अग्गि-मिवाहिअग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा। आलोईयं इंगिअमेव नच्चा, जो छन्दमाराहयइ स पूजो॥१॥ जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि को देव मानकर उसकी शुश्रुषा जागरूक बनकर करता है। उसी प्रकार मुनि,सद्गुरू आचार्यादि के जो-जो कार्य हो, उन-उन कार्यों को कर, सेवा करे जैसे आचार्यादि सद्गुरू वस्त्र के सामने नजर करे, शीतऋतु हो तो समझना कि उन्हें कंबलादि की आवश्यकता है यह आलोकित अभिप्राय है, और जैसे उठने को तैयार हो, उस समय दंड आदि की आवश्यकता है, इत्यादि इंगित अभिप्राय को समझकर, उस अनुसार कार्य करने वाला शिष्य पूज्य होता है। वह कल्याणभागी बनता है।१। आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सूस्सूसमाणो परिगिज्झ वर्क। जहो वइ8 अभिकंखमाणो, गुरूं तु नासाययई स पूजो॥२॥ ___ जो ज्ञानादि पंचाचार के लिए विनय करता है, आचार्यादि सद्गुरू की आज्ञा को सुनने की इच्छा रखनेवाला है, उनकी आज्ञा को स्वीकार कर , उनके कथनानुसार श्रद्धापूर्वक कार्य करने की इच्छावाला है एवं उनके वचनानुसार कार्यकर विनय का पालन करता है एवं उनके कथन से विपरित आचरण कर आशातना न करनेवाला शिष्य है वह मुनि पूज्य है। २। रायणिएसु विणयं पउंजे डहरा वि य जे परियाय-जेट्ठा। नियत्तणे वट्टई सच्चवाई, ओवायवं वक्ककरे स पूजो॥३॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ११३
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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