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________________ ३८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ९१ ३. वृत्तिपरिसंख्यान तप - जैसे भंवरा उद्यान के फूलों से किञ्चित् किञ्चित् रस ग्रहण कर तृप्त हो जाता है उसी प्रकार साधु को भी थोड़ी-थोड़ी सामुदानिक(सामुहिक) भिक्षा लाकर शरीर निर्वाह तथा संयम यात्रा निर्वाह करना भिक्षाचरी तप/वृत्तिपरिंसख्यान तप कहलाता है। साधु की भिक्षा को गोचरी तथा माधुकरी भी कहतें है। दशवैकालिक सूत्र में कहा भी है वयं च वित्तिं लब्भामो ण य कोइ- उवहम्मइ। अहागडेसु रीयंते, पुफ्फेसु भमरो जहा॥ - दशवै: अ० १ गा० ४ 'वृत्ति संख्यान तप' गृहस्थों के लिए आवश्यक आहार्य द्रव्यों की परिसंख्या के सन्दर्भ में है। साधुओं के लिए यह भिक्षाचरी तप स्परूप है। ४. रसपरित्याग - जिह्वा को स्वादिष्ट लगने वाली तथा इनिद्रयों को प्रबल, उत्तेजित करने वाली वस्तुओं का त्याग करना 'रसपरित्याग तप' कहलाता है। शास्त्रों में इसके चौदह प्रकार वर्णित है। ५. प्रतिसंलीनतातप (विविक्ताशय्यासन)- इन्द्रिय, शरीर, मन और वचन से विकारों को उत्पन्न न होने देकर उन्हें आत्मस्वरूप में संलीन करना या कर्मास्रव के कारणों का निरोध करना प्रतिसंलीनता तप कहलाता है। इसके चार भेद हैं १. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता २. कषाय-प्रतिसंलीनता ३. योग-प्रतिसंलीनता ४. विविक्त-प्रतिसंलीनता ६. कायक्लेश - धर्माराधना के लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी काया को कष्ट देना काया क्लेशतप कहलाता है। काया क्लेश तप अनेक प्रकार का है। स्थानांग सूत्र में कायाक्लेश तप के सात प्रकारों का उल्लेख करते हुए कहा है ठाणाइए उकुडुयासणिए पडिमट्ठाइ वीरासणिए। णेसणिज्जे दंडाइए लगंड साई॥ - स्थानांग-७/५५४ सूत्र उववाई सूत्र में सविस्तार चौदह भेदों का वर्णन प्राप्त होता है।
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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