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________________ २२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ९।१ ६. अशक्य प्रतीकर - यह शरीर की अशुचिता को दूर करने के लिए चाहे कि प्रयत्न किये जाये फिर भी इसकी अशुचिता सर्वथा दूर नहीं होती है। येन, केन प्रकारेण, अथवा सर्वप्रकार से प्रबल प्रयत्न करने पर भी शारीरिक अशुचिता अतिकार्य है। अतएव इसे अशक्य प्रतिकार कहा है। ७. अशुचिकारक - यह अशुद्धि गन्दगी से परिपूर्ण शरीर यत्र, तत्र, सर्वत्र अशुचिता ही फैलाता है। अतएव इसे अशुचिकारक भी कहा है। अशुचिता के ये प्रमुख सात कारण है। सूक्ष्मता से और भी अनुसंधान करने पर अनेक कारण मनीषियों द्वारा प्रतिपादित किए जा सकते हैं। आस्रवानुप्रेक्षा - आस्रव (कों का आगमन) के कारण जीव इस संसार में अनादिकात से परिभ्रमण कर रहा है परन्तु कर्मों का आगमन(आस्रव) किन कारणों से होता है, उनके कलुषित कटु परिणाम क्या-क्या है? आस्रव द्वारों को बन्द किये बिना धर्म का सुफल अप्राप्य ही रहता है। आस्रव इस लोक तथा परलोक दोनों में ही अनन्त कष्ट दायक होता है। दुःख, पीड़ा, अवसाद एवं विषाद के कारण आत्मा शिवसुख से वंचित रहती है। हमारी इन्द्रियाँ जब तक बहिर्मुखी रहकर विभिन्न विषयों के साथ सम्पृक्त रहती है तब तक आस्रव रूक नहीं सकता है। इन्द्रियाँ पाँच है। इनमें प्रत्येक के विशय में इस प्रकार विमर्श प्रकार किया जा सकता है - त्वगिन्द्रिय - त्वम् चर्म। हमारे शरीर के ऊपर आवृत चर्म 'त्वक' है। इसे सपशनेन्द्रिय भी कहते है। किसी भी प्रकार की स्पर्शानुभूति इसी इन्द्रिय के कारण होती है। स्पर्शन-सुखानुभूति के चक्कर में फँसकर ही (स्पर्शनेन्द्रिय में आसक्त) हाथी बन्धन में फँसता है तथा स्वतन्त्र विचरण से वंचित होकर पराधीन होकर महावत के अंकुरादि की मार एवं श्रृंखला बन्धन की दर्दभरी अनुभूति करता है। इस प्रकार अनेक उदाहरणों के द्वारा अनुभव सिद्ध है कि अत्यासक्ति पूर्वक स्पर्शेन्द्रिय सुख के अभिलाषियों का इहलोक तथा परलोक बिगड़ जाता है तथा शतधा, सहस्रधा विनिपात(पतन) होता है। रसनेन्द्रिय - रसना-जिह्वा। जिससे हम रसों का ग्रहण करते हैं, उसे रसनेन्द्रिय कहते है। रसनेन्द्रिय के प्रति अत्याकृष्ट जीवों की भी पूर्ववत् दशा होती है। उनका भी यह भव तथा पराभव दोनों विनष्ट (बेकार) हो जाते है। ___ रसनेन्द्रिय की लोलुपता के कारण मच्छली काँटे में फँसकर मृत्यु को प्राप्त करती है। रसना के आस्वाद के लिए निरन्तर छटपटाने वाले जीवों की विपत्ति का कारण भी स्वाद लोलुपता ही होती है। अत: ज्ञानियों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करके रसनेन्द्रिय निग्रह करना चाहिए। अन्यथा विवेक भ्रष्टों का शतधा तपन तो सहज सम्भाव्य है। घ्राणेन्द्रिय- घ्राण नासिका(नाक)। जिस इन्द्रिय से सुगन्ध या दुर्गन्ध की उपलब्धि हमें (जीवों को) होती है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते है। घ्राणेन्द्रिय के प्रति अत्यासक्तिभाव रखने वाला जीव
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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