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________________ २० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ९।१ ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा - जड़ पदार्थ अपनी आत्मा से भिन्न है क्योंकि आत्मा का स्वभावचैतन्य है। ये भौतिक पदार्थ, यह शरीर-आत्मातिरिक्त सब कुछ मुझ से (आत्मा से) अन्य है ऐसी विचारणा ही अन्यत्वानुप्रेक्षा (भावना) कहलाती है। मनुष्य मोहवेश के कारण शरीर तथा अन्य चीज-वस्तुओं की प्राप्ति तथा अप्राप्ति में ही अपनी उन्नत तथा अवनत दशा को मान कर यथार्थ कर्तव्य भूल जाता है। आत्मा से देहादि सभी अन्य पदार्थ भिन्न है। आत्मा नित्य है, वे अनित्य है। इन्द्रियादि अन्य पदार्थ जड़ है। मैं चैतन्य हूँ (आत्मा चेतन है) तथा अनन्त अविनाशी रूप हूँ-इत्यादि सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता तथा आत्मा की नित्यता का चिन्तन करके अन्यत्व भावना सुदृढ़ होती है। उक्त अन्य भावना का विशेष वर्णन इस प्रकार है - विश्व के समस्त प्राणी तथा वस्तुएं एक दूसरे से भिन्न हैं। कर्म योग से ये परस्पर एकत्र होते है और फिर जीव का इन से अलगाव भी हो जाता है। जैसे-भिन्न भिन्न देश से आए हुए मुसाफिर, अल्प समय तक मुसाफिर खाने में साथ रहकर फिर बिछड़ जातें है वैसे ही जीवात्मा के सम्बन्धी भी समयानुसार बिछड़ जातें है। देह भी आत्मा से भिन्न है। शरीर (देह) विनाशी है। जबकि जीवात्मा अविनाशी है, अजर अमर है। शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है। शरीर बदलते रहते है किन्तु जीवात्मा तो एक ही रहता है। इस संसार में परिभ्रण करते हुए अद्यावधि (आज तक) अनन्त शरीर बदल चुके है किन्तु जीवात्मा तो वही (एक ही) है। शाद्धों में शरीर और आत्मा की भिन्नता अनेक प्रमाणों से प्रमाणित है। फल - इस अन्यत्व भावना से देह-शरीर आदि जड़ पदार्थों पर स्वजन इत्यादि चेतन पदार्थों पर राग न हो तथा पूर्वकृत(बद्ध) राग दूर हो तथा मोक्षार्थ प्रवृत्ति हो-यही उत्तम श्रेयस्कर लक्ष्य सधता है। ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा - देह-शरीर में अशुचि का अर्थात् अपवित्रता का विचार करनाअशुचिभावना है। ___ सबसे अधिक मोह शरीर पर होता है। इस मोह को दूर करने के लिए देह की अपवित्रता का चिन्तन/चितवन करना ही अशुचित्वभावना है। यह शरीर अशुचि (अपवित्रता) से उत्पन्न होता है, अशुचिका स्थान है-शरीर। यह सम्पूर्ण शरीर अशुचिमय है। यह चितवन, यह दृष्टि अशुचित्वानुप्रेक्षा कहलाती है।
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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