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________________ प्राक्कथन * प्रथम खण्ड से उद्धृत * * वन्दना * जैनागमरहस्यज्ञ, पूर्वधरं महर्षिणम् । वन्देऽहं श्रीउमास्वाति, वाचकप्रवरं शुभम् ॥ १ ॥ अनादि और अनन्तकालीन इस विश्व में जनशासन सदा विजयवन्त है । विश्ववन्द्य विश्वविभु देवाधिदेव श्रमण भगवान महावीर परमात्मा के वर्तमानकालीन जैनशासन में परमशासनप्रभावक अनेक पूज्य आचार्य भगवन्त आदि भूतकाल में हुए हैं । उन प्राचार्य भगवन्तों की परम्परा में सुप्रसिद्ध पूर्वधर महर्षि-वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति महाराज का अतिविशिष्ट स्थान है। आपश्री संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। जैन आगमशास्त्रों के प्रौर उनके रहस्य के असाधारण ज्ञाता थे। पञ्चशत [५००] ग्रन्थों के अनुपम प्रणेता थे, सुसंयमी और पंचमहाव्रतधारी थे एवं बहुश्रुतज्ञानवन्त तथा गीतार्थ महापुरुष थे । श्री जैन श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को सदा सम्माननीय, वन्दनीय एवं पूजनीय थे और प्राज भी दोनों द्वारा पूजनीय हैं। ग्रन्थकर्ता का काल : पूर्वधर महर्षि-वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज के समय का निर्णय निश्चित नहीं हैं, तो भी श्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्य की प्रशस्ति के पाँच श्लोकों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार यह जाना जाता है कि शिवश्री वाचक के प्रशिष्य और घोषनन्दी श्रमण के शिष्य उच्चनागरी शाखा में हुए उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम' शास्त्र रचा। वे वाचनागुरु की अपेक्षा क्षमाश्रमण मुण्डपाद के प्रशिष्य और मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य थे। उनका जन्म न्यग्रोधिका में हुप्रा था। विहार करते-करते कुसुमपुर (पाटलिपुत्र-पटना) नाम के नगर में यह
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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