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५॥३६
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पञ्चमोऽध्यायः
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(२७) ८४ उत्पलांग
१ उत्पल (२८) ८४ उत्पल
१ पद्मांग (२६) ८४ पद्मांग
१ पद्म (३०) ८४ पद्म
१ नलिनांग (३१) ८४ नलिनांग
१ नलिन ८४ नलिन
१ अर्थनिउरांग ८४ अर्थनिउरांग
१ अर्थनिउर (३४) ८४ अर्थनिउर
१ अयुतांग (३५) ८४ अयुतांग
१ अयुत (३६) ८४ अयुत
१ प्रयुतांग (३७) ८४ प्रयुतांग
१ प्रयुत (३८) ८४ प्रयुत
१ नयुतांग ८४ नयुतांग
१ नयुत (४०) ८४ नयुत
१ चलिकांग (४१) ८४ चलिकांग
१ चालका (४२) ८४ चलिका
१ शीर्षप्रहेलिकांग (४३) ८४ शीर्षप्रहेलिकांग
१ शीर्षप्रहेलिका (४४) असंख्य वर्ष
१ पल्योपम (४५) १० कोड़ाकोड़ी पल्योपम
१ सागरोपम (४६) १० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
१ उत्सपिणीकाल (४७) १० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
१ अवसर्पिणीकाल (४८) १० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
१ कालचक्र (४६) अनंतकालचक्र
१ पुद्गल परावर्तकाल * काल के दो भेद हैं। नैश्चयिक और व्यावहारिक ।
इस अध्याय के २२ वें सूत्र में काल के उपकार रूपे कहे हुए वर्तना इत्यादि पर्याय नैश्चयिक काल हैं।
यहाँ पर कहे हुए समय से प्रारम्भ करके पुद्गल परावर्त तक समस्त काल व्यावहारिक काल है। नैश्चयिक काल लोक और अलोक दोनों में वर्तता है। क्योंकि वर्तनादि पर्याय जैसे लोक में है वैसे अलोक में भी है। व्यावहारिक काल तो मात्र लोक में ही है। लोक में भी सिर्फ ढाई द्वीप में ही है। कारण कि व्यावहारिक काल ज्योतिषचक्र के परिभ्रमण से उत्पन्न होता है। ज्योतिषचक्र का भी परिभ्रमण मात्र ढाई द्वीप में ही होता है ।
अब ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा विचारिये तो वर्तमान समयरूप काल नैश्चयिक काल है। तथा भूत-भविष्यत व्यावहारिक काल हैं। क्योंकि ऋजूसूत्र वर्तमान अवस्थान को ही तात्त्विक मानता है। अर्थात्-ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा वर्तमान समय विद्यमान होने से नैश्चयिक मुख्य (तात्त्विक) काल है। भूतकाल विनष्ट होने से और भविष्यत्काल अब तक उत्पन्न नहीं होने से व्यावहारिकगौण (अतात्त्विक) काल हैं ।