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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १६ कर्मवशादेवदग्धपातितभिन्नच्छिन्नक्षतानि च तेषां सद्य एव संरोहन्ति शरीराणि दण्ड राजिरिवाम्भसि तथैव नारकाणां शरीराणि अपि मृत्युरहितानि भवन्ति । एवमेतानि त्रिविधानि दुःखानि नरकेषु नारकारणां भवन्ति । श्राद्यं तत्र परस्परोदीरितं, क्षेत्रस्वभावोत्पन्नं असुरोदीरितं चेति ।। ३-५ ।। ३।५ ] * सूत्रार्थ - तीसरी वालुकाप्रभा नरक तक के नारकी जीवों को परम अधर्मी और मिथ्यात्वी, पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देवों द्वारा उदीरित दुःख भी होते हैं ।। ३-५ ।। विवेचनामृत 5 नरक गति में तीन प्रकार की वेदना मानी गई है। इनमें से क्षेत्रस्वभावजन्यवेदना और परस्परजन्य वेदनाओं का वर्णन ऊपर आ गया है। ये प्रथम दो वेदनाएँ रत्नप्रभादि सातों नरकभूमियों में समान रूप से हैं। तीसरी वेदना परमाधामी देवों द्वारा कृत है जो केवल रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा यानी प्रथम तीन नरक-भूमियों में होती है । क्योंकि, इन्हीं रत्नप्रभादि तीन भूमियों के अन्तरों में वे परमाधामी असुरदेव निवास करते हैं । वे अतिक्रूर स्वभाव वाले और पापरत होते हैं । इनकी ग्रम्ब, अम्बरीष, श्याम, सबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असि, असिपत्रघन, कुंभी, वालुक, वैतरणी, खरस्वर तथा महाघोष इस प्रकार की पन्द्रह नाम जातियाँ हैं । वे सब संक्लेशरूप स्वभाव से इतने निर्दय और इतने ही कौतूहली होते हैं कि इन्हें अन्य को सताने में अर्थात् सन्ताप देने में या पीड़ा पहुँचाने में ही आनन्द श्राता है। ये नारक-जीवों को आपस में लड़ाते - भिड़ाते हैं और दुःखों की याद दिलाया करते हैं । परमाधामियों की उदीरणा कराने की विधि अनेक प्रकार की होती है । यथा 1 गरम किये हुए लोहे का रस पिलाना, संतप्त लोहे के स्तम्भों से आलिङ्गन कराना, वैक्रियिक शाल्मली वृक्ष के ऊपर चढ़ाना, लोह के घनों की चोट से कूटना, वसूले से छीलना, रन्दा फेरकर क्षत करना, क्षार जल या उष्ण तैल से स्नान कराना, लोहे के कुम्भ में डालकर पकाना, भाड़ में या रेती आदि में भू जना, कोल्हू आदि में पेलना, लोहे के शूल या शलाकादि शरीर में छेद देना, उन शूलादिक के द्वारा देह शरीर को भेदना, आरों से चीरना, अग्नि में या अंगारों में जलाना, सवारी में जोतकर चलना या हाँकना, तीक्ष्ण नुकीली घास के ऊपर से घसीटना, इसी प्रकार सिंहव्याघ्र इत्यादिक हिंसक जीवों के द्वारा भक्षण करना, एवं संतप्त रेती-बालू में चलाना, असि के समान तीक्ष्ण पत्ते वाले वृक्षों के वनों में प्रवेश कराना, वैतरणी - खून - पीव - मल मूत्रादिक की नदी में तैराना तथा उन नारकियों को आपस में लड़ाना । इत्यादिक अनेक प्रकार के उपायों से ये पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देव तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वी तक के नारकी जीवों को उदीरणा करके अनेक दुःख भोगने को विवश करते हैं । नारकी जीवों को आपस में लड़ते हुए तथा मार-पीट करते हुए देखकर परम प्रधार्मिक परमाधामियों को प्रति आनन्द आता है । उन परमाधामी असुरदेवों के लिए और भी अनेक
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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