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________________ ३।३ ] तृतीयोऽध्यायः और विष्टा का प्रवाह हो रहा है, ऐसे अनेक प्रकार के मल, रुधिर, वसा, मेदा और पीप से इनका तल भाग लिप्त रहा करता है। ये भूमियाँ श्मशान भूमि की माफिक सड़े हुए दुर्गन्ध समेत मांस तथा केश, चर्म, दांत, नख तथा हड्डी से व्याप्त बनी रहती हैं। हाथी, घोड़े, सर्प, चूहे, बिल्ली, कुत्ते, गौ, गीदड़, नेबला तथा मनुष्यों के शवों से पूर्ण एवं उनकी अशुभतर गन्ध से सदा दुर्गन्धित रहती हैं। नरक की उन भूमियों में निरन्तर सभी तरफ इस प्रकार के ही शब्द सुनाई पड़ते हैं कि हा मात: ! धिक्कार हो, हाय अत्यन्त कष्ट और खेद है, दौड़ो और मेरे पर प्रसन्न होकर कृपा करके मुझे शीघ्र इन दुःखों से छुड़ानो, हे स्वामिन् ! मैं आपका सेवक हूँ, मुझ दीन को न मारो। इसी तरह निरन्तर रोने के और तीव्र करुणा उत्पन्न करने वाले, दीनता तथा प्राकुलता के भावों से युक्त, अत्यन्त विलापरूप, पीड़ा को प्रकट करने वाले शब्दों से, एवं दीनता, हीनता तथा कृपणता के भाव भरी याचनाओं से, अश्रुधारा युक्त गर्जनाओं से एवं अन्तरङ्ग के संताप का अनुभव कराने वाले उष्ण उच्छ्वासों से वे नरक-भूमियाँ अतिशय भयानकता से भरी रहती हैं। (३) अशुभ देह-नरक के जीवों का देह-शरीर हुण्डकसंस्थान वाला होता है। हुण्डकनामकर्म के उदय से उनके शरीरों का प्राकार अनियत और अव्यस्थित बनता है। उनका शरीर वैक्रिय होते हुए भी देवों की माफिक शुभ-पवित्र नहीं होता है, किन्तु मल-मूत्रादिक अशुभ पदार्थों से भरा हुआ होता है। शरीर का वर्ण अतिशय कृष्ण, भयानक और बीभत्स अर्थात् घृणाजनक होता है। (४) अशुभ वेदना-सातों नरकभूमियों के नारकी जीवों की वेदना उत्तरोत्तर अधिक अधिकतर है। नरक के जीवों को क्षेत्रकृत. परस्परोदीरित और परमाधामी कृत इ वेदना निरन्तर होती है। इनमें से इस सूत्र में क्षेत्रकृत वेदना का निरूपण है। नरक में उष्ण, शोत, भूख, तृषा, खणज, पराधीनता, ज्वर, दाह, भय और शोक इस तरह दस प्रकार की क्षेत्रकृत यानी क्षेत्रसम्बन्धी वेदना है। प्रथम तीन नरक भूमियों में उष्णवेदना है। चौथी नरकभूमि में उष्णवेदना तथा शीतवेदना है। पाँचवीं नरकभूमि में शीतोष्णवेदना है। छठी नरक भूमि में शीतवेदना और सातवीं नरकभूमि में अतिशीतवेदना होती है। उष्णवेदना और शीतवेदना इतनी तीव्र होती है कि इस वेदना को भोगने वाले नरक के जीवों को यदि मृत्युलोक की तीव्र से तीव्र उष्ण या शीतवेदना के स्थान में रखा जाय तो वह स्थान उनके लिए सुखप्रद होता है। क्षेत्रकृत उष्णादि दस प्रकार की वेदना का सारांश नीचे प्रमाणे है (१) उष्णवेदना-ग्रीष्मकाल में जिस जीव का शरीर पित्तव्याधि के प्रकोप से आक्रान्त हो गया हो, तथा चारों तरफ जलती हुई अग्नि से घिरा हुआ हो, आकाश बादल से रहित हो, मध्याह्न समय में सूर्य आकाश के मध्य भाग में आया हो, कड़ी धूप से संतप्त हो रहा हो, तथा वायु-पवन का चलना भी बिलकुल बन्द हो गया हो, उस जीव को उष्णताजन्य जैसी वेदना होती है, उससे भी अनन्तगुणी वेदना नरक के जीवों को होती है। ऐसी असह्य तीव्रउष्णवेदना को सहन करने वाले नारकी को कोई जीव वहाँ से उठाकर इस मनुष्य लोक में पूर्वोक्त स्थल पर लाकर छोड़े तो
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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