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________________ ३।३ ] तृतीयोऽध्यायः [ ११ * सूत्रार्थ-उक्त सातों नरकभूमियों में रहने वाले नारक जीवों के नीचे-नीचे के क्रम से लेश्या, परिणाम, पुद्गल द्रव्यों का परिणमन, अंगोपांग, देह की आकृति, शीत-उष्णादिक वेदना और उत्तरवैक्रियशरीर रचनादि नित्य अशुभतर ही हुआ करते हैं ।। ३-३ ॥ ॐ विवेचनामृत है नरकावासों की संख्या कहते हुए बताया है कि-प्रथम नरकभूमि रत्नप्रभा में तीस लाख, दूसरी शर्कराप्रभा में पच्चीस लाख, तीसरी वालुकाप्रभा में पन्द्रह लाख, चौथी पंकप्रभा में दस लाख, पाँचवीं धूमप्रभा में तीन लाख, छठी तमःप्रभा में ६६६६५ तथा सातवीं तमस्तमःप्रभा में केवल पाँच नरकावास हैं। सातों नरकों के प्रतरों की संख्या बताते हुए कहा है कि-रत्नप्रभा के तेरह प्रतर, शर्कराप्रभा के ग्यारहप्रतर, वालुकाप्रभा के नौ प्रतर, पंकप्रभा के सात प्रतर, धूमप्रभा के पाँच प्रतर, तमःप्रभा के तीन प्रतर तथा तमस्तमःप्रभा का एक प्रतर इस प्रकार कुल ४६ प्रतर हैं। * प्रश्न--प्रस्तर-प्रतरों में नरक कहने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर-एक प्रतर-प्रस्तर और दूसरे प्रतर-प्रस्तर के बीच जो अवकाश यानी अन्तर है, उसमें नरक होती नहीं है। किन्तु प्रत्येक प्रतर-प्रस्तर का तीन-तीन हजार योजन प्रमाण पृथ्वी का पिण्ड है अर्थात् मोटापन है, उसमें विविध संस्थान वाले नरक हैं। * प्रश्न-नरक और नारक का क्या सम्बन्ध है ? उत्तर-नरक नामक स्थान के सम्बन्ध से ही वे जीव प्रात्मा नारक कहलाते हैं। इसलिए नारक जीव-आत्मा ही है तथा नरक उनका स्थान है, ऐसा ही समझना। नारक सदा अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया वाले होते हैं। नरक के जीवों में लेश्या अति अशुभ, पुद्गलवर्णादिक का परिणाम अशुभ, देह अशुभ, वेदना अतिशय, उत्तर वैक्रिय शरीर भी अत्यन्त ही अशुभ होता है। अर्थात्-पहली नरकभूमि से दूसरी नरकभूमि और दूसरी से तीसरी नरक भूमि इसी तरह सातवीं नरक भूमि पर्यन्त के नरक अशुभ, अशुभतर एवं अशुभतम रचना वाले हैं। तथा इन नरकों में रहने वाले नारकी जीवों के भी लेश्या, परिणाम, देह वेदना और विक्रियादि भी उत्तरोत्तर अशुभ-अशुभतर होते हैं। (१) अशुभ लेश्या-नरकों में रहने वाले जीवों में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएँ सदा अशुभ ही रहती हैं। तथा नीचे-नीचे के नरकों की लेश्याएँ अनुक्रम से और भी अधिकाधिक अशुभतर-अशुभतर ही हैं। पहली रत्नप्रभा और दूसरी शर्कराप्रभा में कापोत लेश्या है, किन्तु शर्कराप्रभा की कापोत लेश्या रत्नप्रभा की लेश्या से तीव्र संक्लेश वाली है। इसी तरह तीसरी आदि भूमियों के विषय में भी जानना, तीसरी वालुकाप्रभा में कापोत और नील लेश्या, चौथी पंकप्रभा में नील लेश्या, पाँचवीं धूमप्रभा में नील और कृष्ण लेश्या, छठी तमःप्रभा में
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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