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________________ ४१३८ ] चतुर्थोऽध्यायः [ ६५ एवमेकैकेनाधिका सर्वेषु नवसु यावत् सर्वेषामुपरि नवमे एकत्रिंशत् । सा विजयादिषु चतुर्षु अपि एकेनाधिका द्वात्रिंशत् । साप्येकेनाधिका सर्वार्थसिद्धे त्रायस्त्रिशदिति। सर्वार्थसिद्धदेवस्थितौ जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदाः नैव भवन्ति । एकमेव भेदम, यस्य प्रमाणं त्रयस्त्रिशसागरोपमः । अर्थात्-सर्वार्थसिद्धानामायुः त्रयस्त्रिशसागरोपमा भवति ।। ४-३८ ।। * सूत्रार्थ-पारणकल्प तथा अच्युतकल्प से ऊपर नौ ग्रेवेयक और विजयादि चार तथा सर्वार्थसिद्ध विमान में एक-एक सागरोपम अधिकाधिक उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण है ॥ ४-३८ ।। 5 विवेचनामृत ॥ प्रारण और अच्यूतकल्प से ऊपर नौ ग्रेवेयक तथा विजयादिक चार एवं सर्वार्थसिद्ध इनमें अनुक्रम से एक-एक सागर अधिक-अधिक उत्कृष्ट आयुष्य-स्थिति का प्रमाण जानना । आरण-अच्युतकल्प में बाईस सागर प्रमाण की उत्कृष्ट स्थिति है। इसके ऊपर नौ ग्रैवेयकों में भिन्न-भिन्न एक-एक ग्रैवेयक में एक-एक सागर अधिक-अधिक प्रमाण होने से, उन-उन ग्रैवेयकों की उत्कृष्ट आयुष्य स्थिति का प्रमाण होता है। अर्थात् * पहले ग्रेवेयक के देवों को तेईस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। * दूसरे ग्रैवेयक के देवों की चौबीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। * तीसरे ग्रैवेयक के देवों की पच्चीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। * चौथे ग्रेवेयक के देवों की छब्बीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। * पाँचवें ग्रैवेयक के देवों की सत्तावीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । * छठे अवेयक के देवों को अट्ठाईस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । * सातवें ग्रैवेयक के देवों की उनतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । * आठवें अवेयक के देवों की तीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। * नौवें ग्रेवेयक के देवों की इकतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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