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________________ ६४ ] श्रीस्वार्थाधिगमसूत्रे [ ४३८ महाशुक्रकल्पे दशभिरधिकानि सप्त सप्तदशेत्यर्थः । सहस्रारकल्पे एकादशभिरधिकानि सप्त श्रष्टादशेत्यर्थः । श्रानत - प्राणतयोः त्रयोदशभिरधिकानि सप्तविंशतिरित्यर्थः । प्रारण अच्युतयोः पञ्चदशभिरधिकानि सप्तविंशतिरित्यर्थः । अन्यमपि यच्च इमे द्व े कल्पे एकै केन्द्रभोग्यमस्ति ।। ४-३७ ।। * सूत्रार्थ - पूर्व सूत्र से इस सूत्र में सप्त शब्द की अनुवृत्ति आती है । इसलिए माहेन्द्र कल्पवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागर से कुछ अधिक है । ब्रह्मदेवलोकवासी देवों की दस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । लान्तककल्पवासी देवों की चौदह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । महाशुक्रकल्पवासी देवों की सत्रह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । सहस्रार कल्पवासी देवों की अठारह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । आनत-प्रारणतकल्पवासी देवों की बीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । तथा आरण- अच्युत कल्पवासी देवों की बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है ।। ४-३७ ।। विवेचनामृत 5 यहाँ पूर्व सूत्र से सात की अनुवृत्ति प्राती है । इस सात संख्या में विशेष ३, ७, १०, ११, १३, तथा १५ सागरोपम बढ़ाने से क्रमश: माहेन्द्र इत्यादि कल्पों के देवों की उत्कृष्ट स्थिति होती है । माहेन्द्र की साधिक सात सागरोपम, ब्रह्म की दस सागरोपम, लान्तक की चौदह सागरोपम, महाशुक्र में सत्तरह सागरोपम, सहस्रार में अठारह सागरोपम, प्रानत - प्राणत में बीस सागरोपम, आरण- अच्युत में बाईस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है ।। ( ४-३७ ) * कल्पातीतदेवानां उत्कृष्टस्थितिः 5 मूलसूत्रम् - प्रारणाऽच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयाविषु सर्वार्थसिद्धे च ॥ ४-३८ ॥ * सुबोधिका टीका * आरणाच्युतादूर्ध्व श्रारणाच्युतकल्पे द्वाविंशसागरोत्कृष्टा स्थितिः भवति । मेकैकेनाधिका स्थितिर्भवति । नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च । प्रारणाच्युते द्वाविंशति वेषु पृथगेकैकेनाधिका त्रयोविंशतिः इति ।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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