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________________ ४।२५ ] चतुर्थोऽध्यायः [ ५५ अपि निवसन्ति । यथा साधुनिवासाः नगराद् बहिः भवन्ति तथैव ब्रह्मलोकं परिवृत्याष्टसु दिक्षु अष्टविकल्पाः भवन्ति । अतः ते लोकान्तिकाः इति कथ्यन्ते । ब्रह्मलोकस्यान्ते अष्टनिवासाः भवन्ति । तत्रैव ते उत्पद्यन्ते निवसन्ति च। लोकशब्दार्थ-जन्ममरणयुक्त संसारोऽपि भवति । तस्यान्तः कृतः ते लोकान्तिकाः कथ्यन्ते ।। ४-२५ ।। * सूत्रार्थ-लोकान्तिक देव ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। अर्थात्-जिनका ब्रह्मदेवलोक निवासस्थान है, वे लोकान्तिक देव कहलाते हैं ॥ ४-२५ ।। + विवेचनामृत ॥ लोकान्तिक देव विषयरहित होने से देवर्षि कहलाते हैं। उनमें परस्पर स्वामी और सेवकपने का भाव नहीं होता है, किन्तु सभी स्वतन्त्र भाव से रहते हैं। लोकान्तिक देव ब्रह्मलोक में रहते हैं, इसलिए लोकान्तिक कहे जाते हैं। ब्रह्मलोक में रहने वाले सर्व देव लोकान्तिक नहीं हैं, तो भी जो ब्रह्मलोक के अन्त में रहने वाले हैं वे देव अवश्य लोकान्तिक कहे जाते हैं। ब्रह्मलोक के अंत में चार दिशाओं में चार विमान हैं, तथा चार विदिशाओं में भी चार विमान हैं। तदुपरांत एक विमान मध्य में है। इस तरह नव विमान गिने जाते हैं। इन नव विमानों के कारण ही उनके नव भेद कहे जाते हैं। ___ ब्रह्मलोक के अन्त में बसने से या लोक का-संसार का अन्त करने वाले होने से इन देवों को 'लोकान्तिक' नाम से सम्बोधते हैं। जब तीर्थकर भगवन्तों के निष्क्रमण अर्थात् गृहत्याग-भागवती प्रव्रज्या (दीक्षा) का समय समीप में प्राता है, तब वे नव लोकान्तिक देव उनके पास आकर "जय जय नंदा, जय जय भद्दा" शब्द द्वारा स्तुति करते हुए प्रभु को “भयवं तित्थं पवत्तेह" (हे भगवन्त ! तीर्थ को प्रवर्तायें)। इस तरह तीर्थ प्रवर्ताने के लिए विनंती करते हैं। अर्थात् अपने प्राचार का परिपालन करते हैं। प्रश्न--वे नौ प्रकार के लोकान्तिक देव वहाँ से कितने भव में मोक्ष में जायेंगे ? उत्तर-वे वहाँ से च्युत होकर मनुष्य भव (जन्म) पाकर मोक्षपद प्राप्त करते हैं। इस विषय में भिन्न-भिन्न शास्त्रों में पृथग्-पृथग् भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। कितनेक ग्रन्थों में कहा है कि–'लोकान्तिक देव सात-पाठ भव में मोक्ष में जाते हैं।' तथा कितनेक ग्रन्थों में ऐसा भी कहा है कि-'लोकान्तिक देव एकभवावतारी होते हैं। इसलिए वहाँ से च्यवकर मनुष्य भव में आकर मोक्ष में जाते हैं।' इस तरह उल्लेख है। फिर भी किसी स्थल में ऐसा देखने में आता है कि "नवमें विमान में रहे हुए देव नियमात् एकावतारी ही होते हैं। शेष आठ विमानों के देव एकावतारी होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है।" इस तरह भी दृष्टिगोचर होता है ।। (४-२५)
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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