SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ४।२५ * सूत्रार्थ-ग्रं वेयकों से पूर्व अर्थात्-पहले-पहले के जो विमान हैं, उनको कल्प कहते हैं ॥ ४-२४ ॥ ॐ विवेचनामृत इस चतुर्थ अध्याय के “कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च" अठारहवें सूत्र में वैमानिक देवों के कल्पोपपन्न और कल्पातीत ये दो भेद कहे थे। जहाँ पर कल्प हो वहाँ पर उत्पन्न हुए देव कल्पोपपन्न समझना, तथा जहाँ पर कल्प न हों वहाँ पर उत्पन्न हुए देव कल्पातीत जानना। अर्थात्-जिसमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिशादि रूप से देवों की विभाग-कल्पना की जाय, उसे कल्प कहते हैं। पहले सौधर्म देवलोक से लेकर बारहवें अच्युत पर्यन्त बारह देवलोक में उत्पन्न हुए देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं। तथा नव ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तरवासी देवों में कल्प न होने से वे सभी कल्पातीत कहलाते हैं । क्योंकि कल्पातीत उक्त विमान रूप कल्प उनमें नहीं है। अर्थात् कल्पातीत देवों में सामानिक इत्यादि भेद नहीं होने से सर्व देव स्वयं को इन्द्र मानते हैं। इसलिए वे अहमिन्द्र कहलाते हैं। प्रश्न–क्या वे सर्वदेव सम्यग्दृष्टि होते हैं जो श्री तीर्थंकर भगवन्तों के जन्मादिक कल्याणकों के समय प्रमुदित होते हैं ? उत्तर-नहीं, सभी देव सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, किन्तु जो सम्यग्दृष्टि हैं वे तो सद्धर्म के बहुमान से अति प्रमुदित होते हैं। तथा उनके पास आकर प्रभु की स्तुति-स्तवनादि करते हैं एवं सद्धर्मदेशना भी सुनते हैं; जिससे उनके कर्मों की निर्जरा होती है। जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे भी उस कार्य में प्रवृत्त तो होते हैं किन्तु वे सद्धर्म के बहुमान से प्रवृत्त नहीं हुआ करते हैं। केवल लोगों के चित्त के अनुरोध से अथवा इन्द्र की अनुकूलता से, परस्पर के प्रानन्द से या सभी देव ऐसा करते आये हैं इसलिए हमें भी ऐसा करना चाहिए; यह समझ कर प्रसन्नता को प्राप्त होते हुए जन्माभिषेकादिक उत्सवों में सम्मिलित होते हैं। तथा वहाँ जिनेश्वर भगवान की स्तुति करते हुए या उनका धर्मोपदेश सुन कर कितने ही देव सम्यक्त्व-समकित को प्राप्त करते हैं। तथा जिनको सम्यक्त्व-समकित प्राप्त किया हया है, वे कर्मों की यथास्वरूप निर्जरा कर सकते हैं ।। (४-२४) * लोकान्तिकदेवानां स्थानम् * 卐 मूलसूत्रम् ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः ॥ ४-२५ ॥ * सुबोधिका टीका * ब्रह्मलोक एव प्रालयः येषां ते ब्रह्मलोकालयाः भवन्ति । लोकान्तिकदेवाः ब्रह्मलोकालयाः भवन्ति । तेऽन्यकल्पेषु न निवसन्ति । न च कल्पैः परे ग्रेवेयकादिषु
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy