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________________ ४।२१ ] चतुर्थोऽध्यायः [ ४५ इसी तरह क्रमशः बढ़ते अनुत्तरविमानवासी देव सम्पूर्ण लोकनाली को अवधिज्ञान से देख सकते हैं। जिन देवों के क्षेत्र से अवधिज्ञान का विषय समान है, उन देवों में भी ऊपर-ऊपर के प्रस्तर और विमानों की अपेक्षा अधिक-अधिक अवधिज्ञान होता है। तथा अवधिज्ञान की विशुद्धि भी ऊपर-ऊपर अधिक होती है। वे उसी विषय को विशुद्ध-विशुद्धतर देखते हैं । विशेष-प्रात्मा की अचिन्त्य शक्ति को प्रभाव कहते हैं। यह निग्रह, अनुग्रह, विक्रिया तथा पराभियोग प्रमुख के रूप में देखने में आता है। (१) शाप या दण्ड इत्यादि देने की शक्ति को निग्रह कहते हैं । (२) परोपकार प्रमुख के करने की शक्ति को अनुग्रह कहते हैं । (३) देह-शरीर को विविध प्रकार के बना लेने की अणिमा आदि शक्तियों को विक्रिया कहते हैं। (४) जिसके बल पर दूसरे से जबरदस्ती कोई काम करा लिया जा सके, उसे पराभियोग कहते हैं। यह निग्रहादि की शक्ति देवलोकनिवासी सौधर्मादिक देवों में जितने प्रमाण में पाई जाती है, उससे अनन्तगुणी शक्ति अपने से ऊपर के विमानवर्ती देवों में रहा करती है, किन्तु वे अपनी उस शक्ति को उपयोग में नहीं लेते हैं। कारण कि उनके कर्म अति मन्द हो जाने से मान-अभिमान भी प्रतिमन्द हो जाता है, तथा इनके संक्लेश परिणाम भी अल्पतर हो जाते हैं। इसलिए इनकी निग्रह या अनुग्रह करने में प्रवृत्ति कम हुआ करती है । ___ इसी तरह सुख और द्युति में भी ये देव उत्तरोत्तर अधिकाधिक होते हैं। क्योंकि वहाँ के क्षेत्र का स्वभाव ही इस प्रकार है। जिसके निमित्त से वहाँ के पुद्गल भी अपनी अनादिकालीन पारिणामिक शक्ति के द्वारा अनन्तगुणे-अनंतगुणे अधिकाधिक शुभरूप ही परिणमन किया करते हैं । तथा वह परिणमन इस प्रकार का हुआ करता है, कि जो ऊपर-ऊपर के देवों के लिये अनंतगुणेअनंतगुणे अधिक-प्रकृष्ट सुखोदय का कारण होता है। देह-शरीर की निर्मलता या कान्ति को द्युति कहते हैं। यह भी नीचे के देवों से ऊपर के देवों की अधिक होती है। इस विषय में इतना और भी जानना चाहिए कि, जिन देवों के अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र की अपेक्षा समान है, उनमें भी जो ऊपर-ऊपर के देव हैं, उसकी विशुद्धता अधिकाधिक पाई जाती है। इस तरह वैमानिक देवों में जिन विषयों की अपेक्षा ऊपर-ऊपर अधिकता है, उनको बताया है।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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