SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ४१२१ (३) सुख-ग्राह्य विषयों के अनुभवों को सुख कहते हैं। साता वेदनीय कर्म के उदय से बाह्य विषयों में इष्ट अनुभव रूप सुख ऊपर-ऊपर के देवों को अधिक होता है। (४) द्युति-देह-शरीर, वस्त्र और प्राभूषण प्रादि की कान्ति को धुति कहते हैं। * इसी तरह सुख और द्युति-कान्ति भी उत्तरोत्तर अधिकाधिक हैं। क्योंकि वहाँ के क्षेत्र का स्वभाव ही इसी प्रकार का है। जिसके निमित्त से वहाँ के पुद्गल अपनी अनादिकालीन पारिणामिक शक्ति के द्वारा अनन्तगुणे-अनन्तगुणे अधिक-अधिक शुभ रूप ही परिणमन किया करते हैं। जो ऊपर-ऊपर के देवों के लिए अनन्तगुणे-अनन्तगुणे अधिक प्रकृष्ट सुखोदय का निमित्त कारण हुमा करता है। देह-शरीर की द्युति कान्ति यह भी नीचे के देवों से ऊपर के देवों की अधिक होती है। (५) लेश्या-देह-शरीर के वर्ण को लेश्या कहते हैं। इसकी विशुद्धि भी ऊपर-ऊपर में अधिक-अधिक है। वैमानिक देवों में लेश्या सम्बन्धी वर्णन आगे सूत्र २३ में करेंगे। किन्तु यहाँ इतना ध्यान रखना आवश्यक है कि-जिन ऊपर नीचे के देवों में लेश्या का भेद समान होता है, उनमें भी ऊपर के देवों की लेश्या की विशुद्धि अधिक होती है, तथा उनमें शुभ कर्मों की विशेषता पाई जाती है। (६) इन्द्रिय विषय - दूर से इष्ट विषय को ग्रहण करना यह इन्द्रियों का धर्म है। वह उत्तरोत्तर गुणवृद्धि तथा संक्लेश की न्यूनता होने से सौधर्मादिक देवों की अपेक्षा ईशानादिक देवों की चक्षु आदि इन्द्रियाँ अधिक पटु होने से उत्तरोत्तर विशुद्ध विशुद्धतर होता है। अर्थात् इन्द्रियविषय अधिक होता है। (७) अवधिज्ञानविषय-अवधिज्ञान का विषय-सामर्थ्य भी उत्तरोत्तर देवों को विशुद्ध विशेष-विशेष होता है। जैसे-पहले सौधर्म और दूसरे ईशानकल्प-देवलोक के देव अवधिज्ञान के विषय की अपेक्षा अधः--नीचे पहली नरक रत्नप्रभा पृथ्वी के अन्त तक देख सकते हैं। तिर्यग्तिर्खा असंख्याता लक्षयोजन तक देख सकते हैं। तथा ऊर्ध्व-ऊपर अपने विमान की पताका यानी ध्वजा तक देख सकते हैं। तीसरे सनत्कुमार और चौथे माहेन्द्र कल्प-देवलोक के देव अध:-नीचे दूसरी नरक शर्करा पृथ्वी के अन्त तक देख सकते हैं। तिर्यक्-तिर्छा असंख्याता लक्ष योजन तक देख सकते हैं। तथा ऊर्ध्व-ऊपर अपने विमान पर्यन्त-विमान की पताका-ध्वजा तक देख सकते हैं। तथा तिर्यग्-तिर्शी असंख्याता द्वीप और समुद्र पर्यन्त देख सकते हैं ।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy