SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे ४ | ३ अस्तित्व अनुमान से मालूम होता है, उसी तरह उन चन्द्र-सूर्य इत्यादि देवों का अस्तित्व भी जान लेना चाहिए || ( ४-२ ) * देवानामवान्तरभेदाः मूलसूत्रम् - दशा-ऽष्ट- पञ्च- द्वादश-विकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ४-३ ॥ * सुबोधिका टीका द्विविधाः वैमानिकाः, कल्पोपपन्नकल्पातीताः । तेषु च वक्ष्यमाणेन्द्रसामानिकभेदाः भवन्ति देवानाम् । कल्पैव स्वर्गः । ते च देवनिकाया यथासंख्यमेवं विकल्पा जायन्ते । तद्यथा दशविकल्पा भवनवासिनोऽसुरकुमारादय दशभेदाः । भ्रष्ट विकल्पा व्यन्तराः किन्नरादयः । पञ्चविकल्पा ज्योतिष्काः सूर्यादयः । द्वादशविकल्पाः वैमानिका कल्पोपपन्नपर्यन्ताः सौधर्मादिषु । प्रथम सौधर्मदेवलोकाद् द्वादशपर्यन्ताच्युतदेवलोकपर्यन्तः 'कल्पः' कथ्यते । तत्रत्यानां देवानां द्वादशभेदाः । द्वादशदेवलोकानां इन्द्राः अच्युतदेवलोकोपरि देवाः द्विविधा ग्रैवेयकाः, अनुत्तरवासिनश्च । ते चाहमिन्द्राः इन्द्राभावात् ।। ४-३ ।। द्वादशाः । * सूत्रार्थ - वैमानिक देव कल्पोपपन्न श्रौर कल्पातीत के भेद से दो प्रकार के हैं । उपर्युक्त भवनपति श्रादि चारों निकाय के कल्पोपपन्न देवों-देवतानों के क्रमशः दस, आठ, पाँच और बारह भेद हैं ।। ४-३ ।। 5 विवेचनामृत 5 पूर्वोक्त भवनपति आदि चार प्रकार के देवों के अनुक्रम से भवनपति के दस, व्यन्तर के आठ, ज्योतिष्क के पाँच और वैमानिक के बारह भेद होते हैं । ये समस्त देव कल्पोपपन्न कहे जाते हैं । कल्प यानी मर्यादा - आचार है । जहाँ छोटे-बड़े आदि की परस्पर मर्यादा होती है तथा जहाँ पूज्यों की पूजा इत्यादि करने के प्रचार होते हैं, वहाँ उत्पन्न हुए देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं । जैसे - भवनपति देवों से लेकर बारहवें अच्युतदेवलोक पर्यन्त देवों में छोटे-बड़े की मर्यादा, तथा पूज्य की पूजा प्रमुख का आचार होता है। इसलिए भवनपति देवों से अच्युत देवलोक के देवों तक सभी कल्पोपपन्न कहे जाते हैं । इस तरह कहने का तात्पर्य यह है कि - वैमानिक देवों के दो भेद हैं । कल्पोपपन्न र कल्पातीत । इनमें से उक्त भेद कल्पोपपन्न के ही जानने चाहिए। क्योंकि, सौधर्मदेवलोक से
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy