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________________ ४।२ ] चतुर्थोऽध्यायः * प्रश्न - देव किसे कहते हैं ? उत्तर- 'दिव्यन्तीति देवाः ।' इस निरुक्ति से ही इसका उत्तर मिल जाता है । देव शब्द दिव् धातु से बना है, जो कि क्रोड़ा, विजिगिषा, व्यवहार, द्यति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति तथा गति अर्थ में आती है । देवगति नामकर्म के उदय से ही जो जीव देव पर्याय को धारण करता है, अर्थात् देवरूप में उत्पन्न होता है, वह आत्मस्वभाव से ही क्रीड़ा करने में श्रासक्त रहता है । उसको भूख-प्यास की बाधा नहीं होती । उसका देह शरीर रस और रक्तादिक से रहित, तथा देदीप्यमान होता है । उसकी गति भी प्रति शीघ्र और चपल होती है । इत्यादि अर्थों के कारण ही उसे देव कहते 1 * प्रश्न - देव प्रत्यक्ष इन्द्रियों के द्वारा दिखाई नहीं देते हैं, इसलिए उनका मूल में अस्तित्व भी है या नहीं ? अथवा यह कैसे जाना जाता है कि वास्तव में देवगति का अस्तित्व है ? 5 मूलसूत्रम् - ३ उत्तर – देवगति के एकदेश को देखकर शेष भेदों के अस्तित्व को भी अनुमान से ही जाना जा सकता है। जैसे भवनवासी आदि चार निकायों में से ज्योतिष्क- ज्योतिषी देवों का अस्तित्व प्रत्यक्ष है ।। (४-१) भवति । * ज्योतिष्कदेवानां लेश्या तृतीयः पीतलेश्यः || ४-२ ॥ * सुबोधिका टीका उपर्युक्ताः चतुर्निकायाः तेषु देवनिकायेषु तृतीयः देवनिकायः पीतलेश्यः एव कश्चासौ ? ज्योतिष्केति ।। ४-२ । * सूत्रार्थ - तीसरी ( ज्योतिष्क - ज्योतिषी) निकाय के देव पीत यानी तेजोश्यावाले होते हैं ।। ४-२ ।। 5 विवेचनामृत 5 पूर्व सूत्र में देवों के जो चार निकाय बताये हैं, उनमें से तीसरे निकाय के देवों के पीतलेश्या यानी तेजोलेश्या ही होती है । अर्थात् वे तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क - ज्योतिषी देव कहलाते हैं । यहाँ लेश्या शब्द वर्ण अर्थ में है । द्रव्य लेश्या अर्थात् शारीरिक वर्ण से है, किन्तु म्रध्यवसाय रूप भावलेश्या नहीं है । भावलेश्या तो चारों निकायों के देवों में कृष्णादि छत्रों प्रकार की होती हैं । आकाश में रहे हुए चन्द्र और सूर्य इत्यादि विमान प्रत्यक्ष दिखते हैं । उनमें रहने वाले देव ज्योतिष्क देव कहे जाते हैं। जिस तरह रहने के स्थान मकानों को देखकर उनमें रहने वालों का
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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