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________________ ५४ ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १।२३ श्रवधिज्ञान' कहते हैं । अर्थात् -- जो अवधिज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् अपनी आत्मा के परिणामों की विशुद्धता द्वारा प्रति समय प्रवर्द्धित होता ही रहे, वह वर्धमान श्रवधिज्ञान कहा जाता है। जैसे- श्रग्नि कारण तृण घास को पाकर वृद्धि को प्राप्त होता है । वैसे यह अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद प्रदीप्त अग्नि की तरह क्रमशः बढ़ता ही जाता है । सारांश यह है कि नीचे और ऊपर अरणिकाष्ठ के संघर्षण से उत्पन्न हुई अग्नि की ज्वाला शुष्क पत्रादि तथा ईन्धन राशि का निमित्त पाकर आगे बढ़ती हुई जैसे चली जाती है, वैसे यह उत्पन्न हुआ वर्द्धमान श्रवधिज्ञान उससे अन्तरंग बाह्य निमित्त पाकर के सम्पूर्ण लोकपर्यन्त बढ़ता ही चला जाता है । (४) हीयमान श्रवधिज्ञान -- जो अवधिज्ञान असंख्यात द्वीप, समुद्र, पृथिवी, विमान और तिर्यक्-तिरछा या ऊर्ध्व, अधोलोक के जितने क्षेत्र का प्रमारग लेकर उत्पन्न हुआ है; वह क्रमश: उस प्रमाण से घटते घटते अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग के प्रमाण तक क्षेत्र को विषय करने वाला रह जाय, उसको ही ' हीयमान प्रवधिज्ञान' कहते हैं । श्रर्थात् - जो अवधिज्ञान प्रसंख्यात द्वीप - समुद्रादि विषयी होकर पुन: परिणामों की मन्दता से ह्रास को प्राप्त होता है, उसको ही हीयमान श्रवधिज्ञान कहा जाता है । वर्षा के बन्द होने से जैसे नदी का प्रवाह धीरे-धीरे कम हो जाता है, वैसे इधर भी उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान पुनः परिणामों की मन्दता से क्रमशः घट जाता है । अथवा - जिस तरह किसी अग्नि का उपादान कारण यदि परिमित हो जाय, तो उस अग्नि की ज्वाला भी क्रमशः कम कम हो जाती है । उसी तरह इस हीयमान अवधिज्ञान के विषय में समझना । (५) अनवस्थित- प्रतिपाती प्रवधिज्ञान - प्रनवस्थित यानी अनियत । जो ज्ञान जल की तरंगों के समान कभी वृद्धि कभी न्यून भाव को प्राप्त होता हो या कभी विनाश को भी प्राप्त हो, उसको ही 'अनवस्थित-प्रतिपाती अवधिज्ञान' कहते हैं । अर्थात् - जो अवधिज्ञान एक रूप न रहकर अनेक रूप धारण करे। या तो कभी उत्पन्न प्रमारण से कम, न्यून होता जाय, या तो कभी बढ़ता ही जाय, अथवा कभी छूट भी जाय और फिर कभी उत्पन्न भी हो जाय; वह अनवस्थित- प्रतिपाती अवधिज्ञान कहा जाता है। जैसे - समुद्र की लहरें वायुवेग का निमित्त पाकर विविध प्रकार से छोटी-मोटी या नष्ट - विनष्ट - उत्पन्न हुआ करती हैं, वैसे इस अनवस्थित- प्रतिपाती श्रवधिज्ञान के विषय में समझना । सारांश यह है कि आकाश में चमकती बिजली की तरह उत्पन्न होकर चला जाय, पुन: उत्पन्न हो जाय, कम हो जाय और बढ़ भी जाय; ऐसा श्रनियत यह अनवस्थित- प्रतिपाती अवधिज्ञान है । [६] अवस्थित श्रप्रतिपाती अवधिज्ञान - जो ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् पंचम केवलज्ञान की प्राप्ति तक च्युत न हो, या आजन्म नहीं गिरे या जन्मान्तर में भी साथ ही रहे उसे 'श्रवस्थितश्रप्रतिपाती श्रवधिज्ञान' कहते हैं। जिस तरह इस जन्म में प्राप्त हुआ (पुल्लिङ्ग आदि तीन प्रकार के लिङ्गों में से कोई भी ) लिङ्ग ग्रामररण साथ रहा करता है, किन्तु कदाचित् जन्मान्तर में भी साथ जाता है; उसी तरह यह अवधिज्ञान भी पंचम केवलज्ञान प्राप्त होने तक, या इस जन्म के पूर्ण होने तक तदवस्थ रहा करता है । किन्तु कदाचित् जन्मातर को साथ भी चला जाता है । सारांश यह है कि इस अवस्थित अवधिज्ञान का ही दूसरा नाम अप्रतिपाती अवधिज्ञान है । अप्रतिपाती यानी नियत कायम रहने वाला । अर्थात् - यह अवधिज्ञान जीवन पर्यन्त रहे, किसी जीव के साथ भवान्तर में भी चला जाय, या किसी को पंचम केवलज्ञान उत्पन्न हो वहाँ तक भी रहे। जीव आत्मा को
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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