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________________ १।२३ ] प्रथमोऽध्यायः 5 विवेचन 5 इस सूत्र में 'यथोक्तनिमित्तक' ऐसा शब्द जो दिया है, वह अवधिज्ञान के दूसरे भेद को बताने के लिये है । पूर्व सूत्र में भवप्रत्यय अवधिज्ञान का निर्देश करते हुए कहा था कि - जो ज्ञान जन्म के साथ तत्काल उत्पन्न होता है, उसको भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं । इसके लिये अन्य यम-नियमादि अनुष्ठान को अपेक्षा नहीं रहती । इधर शेष जीवों के शास्त्रोक्त क्षयोपशमरूप निमित्त से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को गुणप्रत्यय या यथोक्तनिमित्तक अर्थात् क्षयोपशमनिमित्तक प्रवधिज्ञान कहते हैं । जो यम (पंच महाव्रत ) नियम और पच्चक्खाण आदि अनुष्ठान के बल से प्रकट होता है । देव और नरक गति के जीवों को पूर्वोक्त भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा मनुष्य एवं तिर्यंच गति के जीवों को यह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है । [ ५३ प्रश्न -- जब चारों गति वाले जीव इस प्रवधिज्ञान को पा सकते हैं तो फिर एक को जन्म से हो जाता है और दूसरे को तपादिक अनुष्ठान करने पड़ते हैं, इसका क्या कारण है ? उत्तर -- यह कर्म की विचित्रता अनुभवसिद्ध है । जैसे— प्राकाश में उड़ने की शक्ति पक्षीजाति में जन्मसिद्ध है, किन्तु मनुष्य जाति में जन्मसिद्ध नहीं है । उनको तो किसी मन्त्र विद्या या वर्तमान विमानरूप एरोप्लेन इत्यादि का सहारा ले करके आकाश में गमन करना पड़ता है । अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से इस क्षयोपशम गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद हैं - ( १ ) अनुगामी अवधिज्ञान, (२) अननुगामी अवधिज्ञान, (३) वर्धमान अवधिज्ञान, (४) होयमान अवधिज्ञान, (५) अनवस्थित या प्रतिपाती अवधिज्ञान तथा ( ६ ) अवस्थित या अप्रतिपाती अवधिज्ञान । स्थान से (१) अनुगामी अवधिज्ञान -- जिस जीव को जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो, उस पुनः अन्य स्थान में गमन करने पर भी उसका वह अवधिज्ञान च्युत न हो । अर्थात् — वहाँ से गमन करने पर भो वह ज्ञान उसके साथ ही रहे, उसको 'अनुगामी या अनुगामिक अवधिज्ञान' कहते हैं । जैसे -पूर्व दिशा में उदित होने वाले सूर्य का प्रकाश पूर्व दिशा के पदार्थों को प्रकाशित करता है और अन्य दिशा के पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, वैसे हो इधर भी फानस - बत्तो के दीपक को तरह साथ में आने वाले अनुगामी अवधिज्ञान का उपयोग प्रवर्त्तता है । (२) अननुगामो अवधिज्ञान -- जिस जीव का अवधिज्ञान प्राप्त स्थान से अन्य स्थान पर गमन करने पर च्युत हो जाय अर्थात् चला जाय, अपने विषय को जानने में समर्थ या उपयुक्त न हो सके, उसे अननुगामी या श्रनानुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं । जैसे - किसी व्यक्ति का नैमित्तिकज्ञान इस प्रकार का होता है कि वह अपने स्थान पर रहते हुए प्रश्न का उत्तर दे सकता है, किन्तु अन्यत्र स्थान में ठीक उत्तर नहीं दे सकता । इस तरह इस अवधिज्ञान के विषय में भी समझना । सारांश यह है कि साथ में नहीं श्राने वाला यह अननुगामी अवधिज्ञान जिस स्थल में जीव को उत्पन्न होता है उसी स्थल में उसका उपयोग प्रवर्त्तता है । किन्तु जीव के अन्यत्र स्थल में जाने पर यहाँ उसका उपयोग नहीं प्रवर्त्तता है। जैसे - इलेक्ट्रिक बल्ब का प्रकाश । (३) वर्धमान श्रवधिज्ञान - जो प्रवविज्ञान अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रादिक जितने विषय के प्रमारण को लेकर उत्पन्न होता है, उस प्रमारण से आगे बढ़ता ही चला जाय, उसको 'वर्धमान
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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