SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्बन्धकारिका-४ प्रभुपूजा का फल अभ्यर्चनादर्हतां मनःप्रसादस्ततः समाधिश्च । तस्मादपि निःश्रेयस-मतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् ॥ ८ ॥ टीका : अर्हतः पूजया मनसः प्रसन्नता भवति, ततो मनःप्रसादात् समाधिर्जायते, समाधिना च मोक्षस्य प्राप्तिर्जायते। अस्माद्धेतोरहतः पूजा कर्तव्या, इत्युचितमस्ति ॥ ८ ॥ अर्थ : अरिहन्त भगवान परमात्मा की अर्चना-पूजा करने से रागद्वेषादिक मानसिक दुर्भाव दूर होकर मन निर्मल बन जाता है, चित्त प्रसन्न होता है। मन की निर्मलता से प्रसन्नता से समाधि यानी ध्यान की एकाग्रता सिद्ध होती है। ध्यान के स्थिर हो जाने से अर्थात समाधि से-समता से कर्मों की निर्जरा एवं कर्मों का क्षय होकर निःश्रेयस यानी मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है। अतः अरिहन्त भगवान की-जिनेश्वरदेव की अर्चना-पूजा करना न्याययुक्त है ॥ ८ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • पूजा करते जिनप्रभु की, प्रकट चित्तप्रसन्नता , प्रसन्न मन साधे समाधि, वरण कर उत्कृष्टता। मुक्ति का तुम हेतु जानो, करे अशिव निवारणा , इसलिए जिनपूजा करना, यह न्याययुक्त मानना । तीर्थस्थापना के हेतु तीर्थप्रवर्तनफलं, यत् प्रोक्त कर्मतीर्थकरनाम । तस्योदयात् कृतार्थो-ऽप्यहंस्तीथं प्रवर्तयति ॥६॥ तत्स्वाभाव्यादेव, प्रकाशयति भास्करो यथालोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय, प्रवर्तते तीर्थकर एवम् ॥१०॥ टीका : तीर्थङ्करनामकर्मणो फलं तीर्थप्रवर्तनरूपं शास्त्रे कथितमस्ति । तस्य (तीर्थङ्करनामकर्मणः) उदयात् कृतार्थोऽर्हन्नपि तीर्थं धर्मतीर्थं प्रवर्तयति ॥ ६ ॥ यथा सूर्यः स्वस्वभावेनैव लोके प्रकाशयति तथैव तीर्थङ्करोऽपि तीर्थं प्रवर्तनाय प्रवर्तते । यतस्तीर्थप्रवर्तनमेव तीर्थङ्करनामकर्मणोः स्वभावोऽस्ति ।। १० । अर्थ : तीर्थङ्कर नामकर्म का फल (कार्य) धर्मतीर्थ का प्रवर्तन यानी मोक्षमार्ग का प्रवर्तन कहा गया है। इसी कारण से, स्वयं कृतकृत्य होते हुए भी अरिहन्त भगवान नामकर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं ॥ ६॥ जैसे सूर्य अपने स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करता है, वैसे ही तीर्थंकर नामकर्म के उदयाधीन अरिहन्त भगवान अपने स्वभाव से धर्मतीर्थ में प्रवृत्त होते हैं ॥ १० ॥
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy