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सम्बन्धकारिका-३
टीका : अधमतमो मनुष्यः अस्मिन् लोके परलोके च दुःखदं कर्मारभते, अधमः नीचः पुरुषः अत्र लोके फलदायककर्मणां केवल मारम्भं कुरुते, विमध्यमः पुरुषस्तु उभयलोके फलप्रदं कर्म समारभते ।। ४ ।। मध्यमः पुरुषः परलोकस्य हिताय निरन्तरं क्रियायां प्रवर्तते, अथ विशिष्टमतिमाँश्चोत्तमपुरुषः सर्वदा मोक्षायैव प्रयतते ।। ५ ।। यः पुरुषः उत्तमधर्मं केवलज्ञानस्वरूपं लब्ध्वा स्वयं कृतार्थो भूत्वाऽन्येभ्योऽपि निरन्तरं धर्मोपदेशं ददाति, स उत्तमेष्वपि उत्तमोऽस्ति, तथा सर्वेषां पूजायोग्य : ( पूज्यतमः ) सन् ज्ञायते अर्थात् स सर्वत्र पूज्यो भवति ।। ६ ।। तस्मादेतादृश उत्तमोत्तम अर्हत एव लोकेषु अन्य जीवानां पूज्यः देवर्षेः राज्ञोऽपि अधिक: पूजनीयोऽस्ति ।। ७ ।।
अर्थ : मनुष्य तीन प्रकार के हैं—उत्तम, मध्यम और अधम । इनमें से उत्तम और धम के भी तीन-तीन भेद हैं- अधमाधम, अधमों में मध्यम तथा अधमों में उत्तम । अधमाधम - जो इस भव में तथा परभव में अर्थात् दोनों ही भवों में अहितकर यानी दुःखदायी कार्य का प्रारम्भ करने वाला हो उसे अधमाधम कहा जाता है । अधमों में मध्यम- जो केवल इसी भव में सुखरूप फल देने वाले कार्यों को करने वाला हो, वह अधमों में मध्यम कहा जाता है । प्रधमों में उत्तम – जो इस भव में भी तथा परभव में भी सुखरूप समृद्धि देने वाले कार्यों का करने वाला हो, उसे अधमों में उत्तम कहा जाता है । उत्तम श्रात्मा के तीन भेद इस प्रकार हैं । उत्तम - जो केवल मुक्ति की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करने वाला विशिष्ट बुद्धिमान् हो, वह उत्तम कहा जाता है । उत्तमों में मध्यम - जो मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करके कृतकृत्य हो गये हैं. ऐसे वे सिद्ध भगवान एवं मूककेवली उत्तमों में मध्यम कहे जाते हैं । उत्तमोत्तम – जो प्रशस्त धर्म को प्राप्त करके स्वयं कृतकृत्य होते हुए भी दूसरों को उस प्रशस्त धर्म का उपदेश देते हैं, वे उत्तमों में भी उत्तम होने से सर्वोत्कृष्ट पूज्य हैं। उन्हें ही उत्तमोत्तम कहा जाता है ।। ४-६ ।। गुण मात्र श्री अरिहन्त परमात्मा में ही घटता है । इसलिए उत्तमोत्तम में अन्य प्राणियों को पूज्य देवेन्द्रों और नरेन्द्रों से भी पूजनीय हैं ॥ ७ ॥
यह सर्वोत्कृष्ट पूज्यता का अरिहन्त भगवान ही लोक
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हिन्दी पद्यानुवाद: • उभय भव को जो बिगाड़े, अधम से भी अधम है, इस भव सुखद यों प्रथम माने मग्न पुद्गल में रहे । दोनों भवों के बाह्य सुख को, चाहे विमध्यम प्रातमा, इस जन्म के सुख के लिए, करता करणी शुभतमा ॥ • परलोक के सुख हेतु जो सह कष्ट करणी आचरे धर्मश्रद्धा पर चले, वह जीव मध्यम सुख वरे । भवमुक्त हो भवभीति से फिर, मात्र मुक्ति चाहते, वे यत्न करते मोक्षहित, अरु श्रेष्ठ संयम धारते ।। • कृतकृत्य उत्तम धर्म पाकर, अन्य को बोधित करें, वे उत्तमों में भी हैं उत्तम, जिनवरों का पद धरें । अरिहन्त तीर्थङ्कर स्वयं जो प्राणियों का दुःख हरें, इस हेतु ही तो है सुपूजित, सुरनरेन्द्र सेवा करें ।।