SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ५३ अणाहारे णं भंते! अणाहार एत्ति पुच्छा ? गोयमा ! अणाहारए दुविहे पण, तं जहा - छउमत्थअनाहारए, केवलणागोयमा ! अजहराणमनुकोसेणं तिरिणसमया । हारए, छाया द्वितीयाध्याय : प्रश्न - - भगवन् ! अनाहार किसे कहते हैं ? उत्तर – अनाहारक दो प्रकार के कहे गये हैं, छद्मस्थ अनाहारक और केवली अनाहारक । अधिक से अधिक तीन समय तक यह जीव अनाहारक रह सकता है । च्र्छनाः प्रज्ञापना पद १८, द्वार ९४. अनाहारः भदन्तः अनाहारः इति पृच्छा ! गौतम ! अनाहारकः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- - छद्मस्थानाहारकः केवल्यनाहारकः । ..अजघन्यानुक्रोशेण त्रिसमया । छाया सम्मूर्छनगर्भोपपादाज्जन्म । भवन्तिया अंडया पोतया जराउया २, ३१. उत्तराध्ययन ३६ गाथा ११७ "समुच्छिया 'उववाइया । दशवैकालिक अध्याय ४ प्रसाधिकार सम्मू [ गर्भव्युत्क्रान्तिकाः ] अंडजाः पोतजाः जरायुजाः • श्रपपादिकाः । भाषा टीका - गर्भज (अंडज, पोतम और जरायुज) सम्मूर्छन और औपपादिक जन्म होते हैं। सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः २, ३२. कइविहाय भंते! जोणी परणत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णता, तं जहा - सीया जोगी, उसिणा जोगी सीओसिया
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy