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________________ ४४ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : ममनस्क अथवा असंज्ञी ही होते हैं । अतएव उनमें संज्ञी असंज्ञी की भेद कल्पना नहीं होती। पंचेन्द्रियों में सभी गतियों में यह दोनों भेद होते हैं । सारांश यह है कि संसारी जीवों के भी दो भेद हैं । समनस्क और अमनस्क अथवा संज्ञी और असंझी। "संसारिणस्त्रसस्थावराः।" संसारसमावन्नगा तसे चेव थावरा चेव। स्थानाङ्ग स्थान २ उद्देश्य १ सूत्र ५७ छाया- संसारसमापनकाः साश्चैव स्थावराश्चैव । भाषा टीका - संसारी जीवों के दो भेद होते हैं - त्रस और स्थावर । संगति – यहां पागम वाक्य और सूत्र के अक्षर लगभग एक से ही हैं । “पथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा।" २. १३ पंच थावरा काया पण्णत्ता, सं जहा-इंदे थावरकाए (पुढवीथावरकाए) बंभेथावरकाए (आजथावरकाए) सिप्पे थावरकाए (तेऊ थावरकाए) संमती थावरकाए (वाजथावरकाए) पाचावच्थावरकाए (वणस्सइथावरकाए)। ___स्थानाङ्ग स्थान ५ उद्देश्य १ सूत्र ३६४ छाया- पञ्च स्थावराः कायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पृथिवीस्थावरकायः अप्स्थावरकायः तेजःस्थावरकाय : वायुस्थावरकायः वन स्पतिस्थावरकाय:। ___ भाषा टीका- उनमें से भी स्थावर कायों के पांच भेद होते हैं -पृथिवी स्थावर काय, जल स्थावरकाय, अग्नि स्थावरकाय, वायु स्थावरकाय, और वनस्पति स्थावरकाय। "द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः।" -२, १४.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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