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________________ द्वितीयाध्यायः [ ४३ “संसारिणो मुक्ताश्च ॥" २. १०. दुविहा सव्वजीवा पएणत्ता, तं जहा-सिद्धा चेव असिद्धा चेव। स्थानांग स्थान २ उद्दे० १ सूत्र, १०१. संसारसमावन्नगा चेव असंसारसमावन्नगा चेव ॥ स्थानांग स्थान २, उद्दे० १, सूत्र ५७ छाया- द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सिद्धाश्चैव असिद्धाश्चैव । संसारसमापनकाश्चैवासंसारसमापनकाश्चैव ॥ भाषा टीका - सब प्रकार के जीव दो प्रकार के होते हैं - सिद्ध और प्रसिद्ध, अथवा संसारी और असंसारी। संगति - सिद्ध और मुक्त तथा प्रसिद्ध और संसारी का शाब्दिक अन्तर बिलकुल स्पष्ट है। “समनस्काऽमनस्काः ॥" २, ११. दुविहा नेरइया पगणता, तं जहा - सन्नी चेव प्रसन्नी चेव, एवं पंचेदिया सव्वे विगलिंदियवजा जाव वाणमंतरा वेमाणिया। __स्थानाङ्ग स्थान २ उद्दे०१ सूत्र ७६ छाया- द्विविधौ नैरयिको प्रज्ञप्तौ, तद्यथा - संज्ञी चैव अंसज्ञी चैव । एवं पञ्चेन्द्रियाः सर्वे विकलेन्द्रियवाः यावत् व्यन्तराः वैमानिकाः। भाषा टीका - नारकी दो प्रकार के होते हैं - संञी और असंही। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय के अतिरिक्त व्यन्तर और वैमानिक तक सभी पंचेन्द्रियों के संज्ञी और असंज्ञी भेद होते हैं। संगति - जिनके मन हो उनको समनस्क अथवा संज्ञी कहते हैं और जिनके मन न हो उनको अमनस्क अथवा असंज्ञी कहते हैं । इस विषय में सूत्रकार और आगम का केवल शाब्दिक भेद है । एक इन्द्रिय से लगाकर चौइन्द्रिय सक के जीव बिना मन वाले
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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