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प्रथमाध्यायः
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सामान्य रूप से मति मतिज्ञान भी होता है और अज्ञान भी होता है।
संगति -मति, श्रुत और अवधि ज्ञान तो होते ही हैं, अज्ञान भी होते हैं । इनके अज्ञान होने का कारण सूत्र में शराबी का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है । जिस प्रकार शराबी मद्य पीकर अच्छे या बुरे के ज्ञान से शून्य होकर माता तथा पत्नी को समान समझता है उसी प्रकार अज्ञानी के मति, श्रुत अथवा अवधि यदि पंचाग्नि आदि तप के कारण प्रगट हो भी जावें तो वह कुमति, कुश्रुत और विभंग कहलाते हैं । आगम में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है और सूत्र में इसी को कुछ अक्षरों में ही समाप्त कर दिया गया है।
"नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्द
समभिरूढैवम्भूताः नयाः॥ सत्तमूलणया पण्णत्ता, तं जहा - णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसूए, सदे, समभिरूढे, एवंभूए।
अनुयोगद्वार १३६.
स्थानांग स्थान ७ सूत्र ५५२ छाया- सप्तमूलनया: प्रजाप्तास्तद्यथा - नैगम:, संग्रह :, व्यवहारः,
ऋजुसूत्रः, शब्दः, समभिरुढ :, एवंभूतः । भाषा टीका - मूल नय सात कही गई हैं -नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ।
संगति - यहां आगम और सूत्र के शब्द प्राय : मिलते जुलते हैं।
इति श्री जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संग्रहीते
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये प्रथमाध्यायः समाप्तः॥१॥