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________________ २६ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः “मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ "सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ अणाणपरिणामेणं भंते कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे पएणत्ते, तं जहा-मइअणाण परिणामे, सुयप्रणाण परिणामे, विभंगणाणपरिणामे ॥ प्रज्ञापना पद १३ ज्ञानपरिणामविषय स्थानांग सूत्र स्थान ३. उद्दश्य ३ सूत्र २८७ से किं तं मिच्छासुयं? जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्ठिएहिं सच्छंदबुद्धिमइ विगप्पियं, इत्यादि। नन्दि० सूत्र ४२. अविसेसिया मई मइनाणं च मइअन्नाणं च इत्यादि । नन्दि सूत्र २५. छाया- प्रज्ञानपरिणाम : भदन्त ! कतिविधः प्रशप्त : ? गौतम! त्रिविध : प्रज्ञप्तस्तद्यथा-मत्यज्ञानपरिणामः श्रुताज्ञानपरिणामः, विभंगज्ञानपरिणामः। अथ किं तन्मिथ्याश्रुतं ? यदिदं अज्ञानिभिः मिथ्यादृष्टिभि : स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितम् ।। अविशेषिका मति : मतिज्ञानं मत्यज्ञानश्च इत्यादि । प्रश्न- भगवन् अज्ञान परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर- गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है-मति अज्ञान अथवा कुमति, श्रुताज्ञान अथवा कुश्रुत, तथा विभंग ज्ञान अथवा कुअवधि । प्रश्न-वह मिथ्याश्रुत क्या है ? उत्तर- स्वच्छन्द बुद्धि वाले मज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए शास्त्र को मिथ्याश्रत कहते हैं।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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